उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
घोड़ागाड़ी वहीं तैयार खड़ी थी। रमेश चुपचाप जा कर उस पर बैठ गया और वेणी उसके सामनेवाली सीट पर बैठे। उन्होंने अपने सिर से चादर हटा ली थी। चोट का घाव तो सूख गया था, पर अपने निशानों की छाप स्पष्ट छोड़ गया। उस पर नजर पड़ते ही रमेश ने चौंक कर कहा-'यह क्या हुआ, बड़े भैया?'
दीर्घ निःश्वापस छोड़ कर, वेणी ने अपना दाहिना हाथ उलटते हुए कहा-'मेरे अपने ही कर्मों का फल है भैया, क्या करोगे सुन कर उसे?'
वेणी ने चेहरे पर व्यथा के चिह्न स्पष्ट हो उठे। वे चुप हो गए। उन्हें अपनी गलती स्वयं स्वीकार करते देख कर रमेश का हृदय द्रवित हो उठा उनके प्रति।
रमेश को आशंका हो गई कि कोई घटना अवश्य घटी है। पर उसे जानने के लिए अधिक अनुरोध न किया उन्होंने। रमेश को इसका कारण न पूछते देख, वेणी ने सोचा कि जिस बात को कहने के लिए उन्होंने इतनी सफलता से पृष्ठभूमि तैयार की थी वह जैसी की तैसी ही रही जा रही है, तो थोड़ी देर चुप रह कर, दीर्घ निःश्वाअस छोड़ स्वयं ही बोले-'मेरी जन्म से ही आदत है कि जो मन में होता है, वह जुबान से भी साफ कह देता हूँ। कई बार छिपा कर नहीं रख पाता! अपनी इस आदत के कारण, न जाने कितनी बार सजा भुगतनी पड़ी है, पर होश नहीं आता!'
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