उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'है कहाँ, वह?'
'घर ही में पड़ी हैं।'-थोड़ी देर रुक कर उसने कहा-'फिर कल शायद समय न मिल सके, इसलिए इसी समय हो सके, तो बहुत अच्छा हो!'
रमेश उठ कर खड़े होते हुए बोला-'चलो, चलता हूँ।'
रमा भी रमेश को बुला कर, उनके आने की आशा व प्रतीक्षा में तैयार थी। दासी ने रमेश को कमरे में चले जाने को कह दिया। वह कमरे में घुस कर एक कुर्सी पर बैठा ही था कि रमा आ कर उसके पैरों पर झुक गई। एक ओर कोने में दीए की क्षीण लौ टिमटिमा रही थी। रमेश उसकी मंद रोशनी में रमा के क्षीण शरीर को अच्छी तरह न देख सका। उससे कहने की बातें, जो उसने रास्ते में आते समय सोची थीं, सब क्षण भर में हवा हो गईं और अत्यंत स्नेहसिक्त कोमल स्वर में वे बोले-'कैसी तबियत है, रानी?'
रमा उठ कर पैरों के पास ही सीधी हो कर बैठ गई, बोली -'मुझे आप रमा ही पुकारा करें!'
रमेश को जैसे किसी ने ठोकर मार दी हो, थोड़ा सूखे स्वर में कहा उन्होंने-'जैसी तुम्हारी मर्जी! तुम्हारी बीमारी की बात सुनी थी मैंने, तभी पूछा था कि अब कैसी है तबीयत! नहीं तो, न मैं चाहता ही हूँ और न मेरी इच्छा ही होती है तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारने की, फिर चाहे वह रमा हो या रानी!'
रमा थोड़ी देर तक मौन बैठी रही, फिर बोली-'ठीक ही हूँ। मेरे बुलाने पर आपको विस्मय तो जरूर ही हुआ होगा!'
बीच ही में रमेश ने तीव्र स्वर में कहा-'विस्मय तो बिलकुल नहीं हुआ-क्योंकि अब मुझे तुम्हारे किसी काम से ताज्जुब नहीं होता! बोलो, किसलिए बुलवाया है?'
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