उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश अनभिज्ञ रहे कि उनके इस वाक्य ने रमा के अंतर को विदीर्ण कर दिया। थोड़ी देर तक वह सिर झुका कर शांत बैठी रही। फिर बोली-'मैंने आपको बहुत कष्ट दिया है! आपके सामने मैं कितनी बड़ी अपराधिनी हूँ-यह तो मैं खूब जानती हूँ। पर मुझे यह विश्वा स था कि आप आएँगे अवश्य, और मेरे दो अंतिम अनुरोधों को भी अवश्य मानेंगे, रमेश भैया! मेरे दो अनुरोध हैं आपसे-उन्हीं के लिए मैंने आपको कष्ट दिया है।'
कहते-कहते आँसुओं से उसका गला भर उठा, और बातचीत वहीं रुक गई। रमेश का दबा प्रेम भी उमड़ पड़ा। उसे यह देख कर कि इतने थपेड़े खा कर भी वह प्रेम अक्षुण्ण रहा है, बड़ा आश्चंर्यानंद हुआ। थोड़ी देर तक शांत बैठे रहने के बाद उसने पूछा-'बोलो! सुनूँ तो, क्या हैं तुम्हारे अनुरोध!'
रमा का सिर एक बार ऊपर उठ कर फिर नीचा हो गया। बोली-'आपकी सहायता से बड़े भैया जिस जायदाद को हथियाना चाहते थे, उसमें पंद्रह आना हिस्सा मेरा है और एक आने में आप लोग! मैं उसे आपको सौंप जाना चाहती हूँ।'
रमेश ने कड़े स्वर में कहा-'न मैंने पहले ही कभी, चोरी में किसी की सहायता की है और न अब ही करने का इरादा है! तुम निश्चिंेत रहो! तुम्हारा इरादा अगर उसे दान करने का ही है, तो मैं तो तुम जानती हो कि दान लेता नहीं! और भी तो बहुत-से लोग हैं, जिन्हें दान कर सकती हो!'
और कोई समय होता, तो रमा यह कहने में न चूकती कि घोषाल परिवार को शर्म किस बात की है, मुकर्जी परिवार का दान लेने में? लेकिन आज इतनी कटु बात कहने को उसका मुँह नहीं खुला। उसने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा-'मैं खूब जानती हूँ कि आप अपने लिए दान नहीं लेंगे और लेंगे तो औरों की भलाई के लिए ही! चोरी में सहायता भी आप न देंगे। लेकिन मेरे अपराधों के दण्डस्वरूप जुर्माने के रूप में ही स्वीकार कर लीजिए उसे!'
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