उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
और सबेरे-ही-सबेरे रमेश उनके दरवाजे पर जा पहुँचा। वह ताई जी की बुद्धि पर कितना विश्वारस करता है, इसका स्वयं भी उसे ज्ञान नहीं था। जब वह वहाँ पहुँचा, तो ताई जी सबेरे के सब जरूरी कार्यों से निवृत्त हो, स्नान-ध्यान कर, अपनी कोठरी में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थीं। उनकी आँखों पर चश्मा था।
रमेश को आया देख कर ताई जी को भी विस्मय हुआ। किताब बंद कर, उसे अंदर बुला कर बैठाया और कौतूहलपूर्ण आँखों से उनकी तरफ देखती रहीं। फिर बोलीं-'कैसे भूल पड़े आज इधर सबेरे ही?'
'आपके दर्शन को! कई दिनों से नहीं आ पाया था न! ताई जी, मैंने वीरपुर गाँव में एक नया स्कूल खोलने का निश्च य किया है।'
'सुना तो मैंने भी है; पर आजकल तुम अपने स्कूल में पढ़ाने भी नहीं जाते, सो क्यों?'
'ताई जी! इन लोगों की भलाई के लिए कुछ करना नेकी कर कुएँ में डालना है! ये लोग नहीं बर्दाश्त कर सकते कि किसी की भलाई हो, मदद हो! अहंकार ने इन्हें नितांत अंधा बना दिया है। ऐसे लोगों के लिए मेहनत करना बेकार में अपनी जान खपाना है! ताई जी! और तो और, जो इनकी भलाई करे-उसी से शत्रुता निभाने लग जाते हैं। मैं तो अब उनकी भलाई करूँगा, जिनकी भलाई करने से वास्तव में कुछ लाभ भी हो!'
'रमेश! यह तो संसार का आदि नियम-सा चला आ रहा है। जिसने भलाई करने का बीड़ा उठाया, उसी के शत्रुओं की संख्या का पार नहीं रहा। अगर भलाई करने का बीड़ा उठानेवाला ही इसी डर से अपना रास्ता छोड़ कर हट जाए, तो फिर उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जाए! और न फिर संसार की गति ही चल सकती है। भगवान ने जिनको जीवन में जो भार सौंपा है, उसे तो हर हालत में उठाना ही होगा! उसी तरह यह भार तुम्हारे उठाने का है। इससे तुम मुँह नहीं मोड़ सकते! अच्छा, यह तो बता बेटा! क्या तू उनके हाथ का छुआ पानी भी पीता है?'
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