उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
कुछ देर तक मौन रह कर रमेश ने कहा-'वचन तो नहीं दे सकता! बिना किसी हिचक के, तुम्हारी हर बात मान लेने की जो शक्ति थी, उसे तुमने अपने ही हाथों तोड़ -फोड़ डाला।'
रमा ने स्तब्ध हो कर कहा -'मैंने भला कैसे?'
'रमा, मैं आज तुमसे एक बात कहूँगा कि इस संसार में वह शक्ति, जिस पर मैं सम्पूर्ण विश्वा स कर सकूँ, जिसकी कोई बात न टाल सकूँ, वह केवल तुम्हीं में थी! अब तुम्हें चाहे इस पर विश्वाजस हो या न हो और यदि वह शक्ति नियति के थपेड़े से नष्ट न हो गई होती, तो मैं यह बात कहता भी नहीं!' और थोड़ी देर तक मौन रह कर फिर उन्होंने कहा-'आज इस बात को कहने में न मेरा ही नुकसान है, न तुम्हारा ही! उस दिन तक ऐसी कोई चीज न थी, जिसे तुम माँगो और मैं तुम्हें न दूँ! जानती हो, ऐसा क्यों था?'
रमा ने सिर हिला कर ही संकेत किया -'नहीं।' रमा का चेहरा किसी अव्यक्त लज्जा से आरक्त हो उठा।
'सुन कर लजाना भी मत, और न मेरे ऊपर नाराज होना! सोच लेना कि बीते जमाने की एक कहानी सुन रही हूँ।'
रमा के मन में हुआ भी कि उसे रोक दे, पर रोक न सकी और उसका सिर झुका ही रहा गया।
रमेश ने शांत-सुकोमल स्वर में कहा-'मैं तुम्हें प्यार करता था और ऐसा करता था, जैसा मानो कभी किसी ने किसी को भी न किया होगा! जब मैं बच्चा था, तब मेरी माँ कहा करती थी कि हम दोनों का ब्याह होगा; और जब मुझे उससे निराश होना पड़ा, उस दिन मैं ऐसा रोया कि इसकी याद आज भी ताजा है।'
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