उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमा का हृदय इन सब बातों को सुन कर बिलख उठा। उसका सारा अंतर विदीर्ण हो कर टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। पर वह रमेश को न रोक सकी; मूर्तिवत शांत बैठी रही। रमेश ने आगे कहा-'तुम सोचती होगी कि तुमसे यह बातें कहना तुम पर अन्याय करना है! सोचता मैं भी पहले ऐसा ही था, और तभी तारकेश्वार में, जब तुम्हारे सामीप्य ने मेरे समस्त जीवन को एक नवीनता प्रदान कर दी, उस समय मैं यह सब न कह सका। मैंने बड़े कष्ट से, अपने दिल में इस बात को दबा रखा था।'
रमा से अब चुप न रहा गया। बोली-'आज फिर क्यों, अपने मकान में अकेला पा कर लज्जित कर रहे हैं?'
'नहीं, बिलकुल नहीं! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता, जिससे तुम्हें अपमान का अनुभव हो। न तुम वह पहले की रमा रही, और न मैं पहले का वह रमेश ही! फिर भी सुनो! मुझे उस दिन यह पूर्ण विश्वालस हो गया था कि तुम सब सह सकती हो, सब कुछ कर सकती हो, लेकिन मेरा अहित नहीं सह सकती; और इसीलिए मुझे यह विश्वालस हो चला था कि तुम्हारे ऊपर अपने हृदय के समस्त विश्वा स को आधारित कर, शांति के साथ इस जीवन के सारे कामों को पूरा कराता चला जाऊँगा! लेकिन, जब उस रोज रात को मैंने अपने कानों से अकबर को यह कहते सुना कि तुमने स्वयं...! अरे कोई है! बाहर इतना हल्ला किसलिए मच रहा है?'
तभी गोपाल सरकार ने हाँफते हुए आ कर कहा-'छोटे बाबू!' सुनते ही रमेश बाहर निकला। गोपाल सरकार ने उससे कहा-'छोटे बाबू, पुलिसवालों ने भजुआ को पकड़ लिया।' कहते हुए उनके होंठ काँप उठे और जैसे-तैसे उन्होंने बात पूरी की-'परसों रात को राधानगर में तो डकैती हुई, उसी में उसे शामिल बताया जाता है।'
कमरे की तरफ देखते हुए रमेश ने कहा-'रमा, अब एक क्षण भी तुम्हारा यहाँ ठहरना ठीक नहीं! खिड़की के रास्ते तुरंत बाहर चली जाओ! पुलिस जरूर ही मकान की तलाशी लेगी।'
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