उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती ने जवाब नहीं दिया। देवदास ने विरक्त होकर थोड़ा चिल्लाकर आप-ही-आप कहा-‘जाकर मरने दो।‘
पार्वती चली गई। देवदास ने जैसे-तैसे करके दो-एक बंसी काट ली। उसका मन खराब हो गया था।
रोते-रोते पार्वती मकान पर लौट आई। उसके गाल के ऊपर छड़ी के नीले दाग की सांट उभर आई थी, पहले ही उस पर दादी की नजर पडी। वे चिल्ला उठी-'बाप बे बाप! किसने ऐसा मारा है, पारो?'
आँख मीचते-मीचते पार्वती ने कहा- 'पंडितजी ने।'
दादी ने उसे लेकर अत्यंत क्रुद्ध होकर कहा-'चल तो, एक बार नारायण के पास चल, वह कैसा पंडित है। हाय-हाय! बच्ची को एकदम मार डाला!'
पार्वती ने पितामही के गले से लिपटकर कहा- 'चल!'
मुखोपाध्यायजी के निकट आकर पितामही ने पंडितजी के मृत पुरखा-पुरखनियों को अनेकों प्रकार से भला-बुरा कहकर तथा उनकी चौदह पीढ़ियों को नरक में डालकर अंत में स्वयं गोविंद को बहुत तरह से गाली-गुफते देकर कहा-'नारायण, देखो तो उसकी हिम्मत को! शूद्र होकर ब्राह्मण की कन्या के शरीर पर हाथ उठाता है! कैसा मारा है, एक बार देखो!' यह कहकर वृद्धा गाल के ऊपर पड़े हुए नीले दाग को अत्यंत वेदना के साथ दिखाने लगी।
नारायण बाबू ने तब पार्वती से पूछा-'किसने मारा है, पारो?'
पार्वती चुप रही। तब दादी ने और एक बार चिल्लाकर कहा-'और कौन मारेगा सिवा उस गंवार पंडित के।'
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