उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 367 पाठक हैं |
कालजयी प्रेम कथा
'नहीं।'
'बड़े चाचा तुम्हें भेजेंगे तब?'
'बाबू जी ने खुद ही कहा है कि अब मैं वहां नहीं पढ़ूंगा। पंडितजी ही मकान पर आवेंगे।'
पार्वती कुछ चिंतित हो उठी। फिर कहा-'कल से गरमी की वजह से पाठशाला सुबह की हो गयी है, अब मैं जाऊंगी।'
देवदास ने ऊपर से आँख लाल करके कहा-'नहीं, यह नहीं हो सकता।'
इस समय पार्वती थोडा अन्यमनस्क-सी हो गई और नोना की डाल ऊपर उठ गयी, साथ-ही-साथ देवदास नोना की डाल से नीचे गिर पड़ा। डाल अधिक ऊंची नहीं थी, इससे ज्यादा चोट नहीं आयी, किंतु शरीर के अनेक स्थान छिल गए। नीचे आकर क्रुद्ध देवदास ने एक सूखी कइन लेकर पार्वती की पीठ के ऊपर गाल के ऊपर और जहां-तहां जोर से मारकर कहा-'जा, दूर हो जा।' पहले पार्वती स्वयं ही लज्जित हुई थी, पर जब छड़ी-पर-छड़ी क्रम से पडने लगी, तो उसने क्रोध और अभिमान से दोनों आँखें अग्नि की भांति लाल-लाल कर रोते हुए कहा-'मैं अभी बड़े चाचा के पास जाती हूं।' देवदास ने क्रोधित होकर और एक बार मारकर कहा-'जा, अभी जाकर कह दे, मेरा कुछ नहीं होगा।'
पार्वती चली गई। जब वह दूर चली गई - तब देवदास ने पुकारा- 'पारो।'
पार्वती ने सुनी-अनसुनी कर दी और भी जल्दी-जल्दी चलने लगी।
देवदास ने फिर बुलाया-'ओ पारो, जरा सुन जा!'
|