उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
भैरव घर पर गया और कुछ फरूही चादर में बांधकर एक लाठी हाथ में लेकर तुरन्त लौट आया, कहा-'तब चलो; पर क्या तुम क्या खाओगी नहीं?'
चन्द्रमुखी ने कहा-'नहीं भैरव, अभी मेरा पूजा-पाठ नहीं हुआ है, अगर समय पाऊंगी तो वहीं पर सब करूंगी।'
भैरव आगे-आगे रास्ता दिखलाता हुआ चला। पीछे-पीछे चन्द्रमुखी बड़े कष्ट के साथ पगडंडी के ऊपर चलने लगी। अभ्यास न रहने के कारण दोनों कोमल पांव क्षत-विक्षत हो गये। धूप के कारण सारा मुख लाल हो उठा। खाना-पीना कुछ न होने पर भी चन्द्रमुखी खेत-पर-खेत पार करती हुई चलने लगी। खेतिहर किसान लोग आश्चर्यित होकर उसके मुख की ओर देखते थे। चन्द्रमुखी एक लाल पाढ़ की साड़ी पहने हुई थी, हाथ में दो सोने के कड़े पड़े हुए थे, सिर पर ललाट तक घूंघट था और सारा शरीर एक मोटे बिछौने की चादर से ढंका हुआ था। सूर्यदेव के अस्त होने में अब और अधिक विलम्ब नहीं है। उसी समय दोनों गांव में आकर उपस्थित हुए। चन्द्रमुखी ने थोड़ा हंसकर कहा-'भैरव, तुम्हारा दो धाप इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो गया?'
भैरव ने इस परिहास को न समझकर सरल भाव से कहा-'इस बार तो चली आयीं। पर क्या तुम्हारी सूखी देह आज ही फिर लौटकर चल सकेगी?'
चन्द्रमुखी ने मन-ही-मन कहा- आज क्या, जान पड़ता है कल भी ऐसे इतना रास्ता नहीं चल सकूंगी। प्रकट से कहा-'भैरव, क्या यहां गाड़ी नहीं मिलेगी?'
भैरव ने कहा-'मिलेगी क्यों नहीं, बैलगाड़ी मिलेगी, कहो तो ठीक करके ले आवें?'
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