उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
गाड़ी ठीक करने का आदेश देकर चन्द्रमुखी ने जमीदार के घर में प्रवेश किया।
भैरव गाड़ी का प्रबन्ध करने दूसरी ओर चला गया। भीतर ऊपरी खंड में-दालान में, बड़ी बहू बैठी थी। एक दासी चन्द्रमुखी को वहीं लेकर आयी। दोनों ने एक दूसरे को एक बार ध्यानपूर्वक देखा। चन्द्रमुखी ने नमस्कार किया। बड़ी बहू शरीर पर अधिक अलंकार नहीं धारण करती, किन्तु आंखों के कोण पर अहंकार झलका करता है। दोनों होंठ और दांत पान और मिस्सी से काले पड़ गये हैं। गाल कुछ ऊपर उठे हुए हैं और सारा चेहरा भरा-पूरा। केशों को इस प्रकार सजाकर बांधती है कि कपाल जगमगा उठता है। दोनों कानों में मिलाकर कोई बीस-तीस छोटी-बड़ी बालियां पड़ी हैं। नाक के नीचे एक बुलाक लटकता है। नाक के एक ओर लौंग पहने है। जान पड़ता है, यह सुराख नथ पहनने के लिए बना है। चन्द्रमुखी ने देखा, बड़ी बहू बहुत मोटी-सोटी है, रंग विशेष श्याम है, आंखें बड़ी-बड़ी हैं, गोल गठन का मुख है, काले पाड़ की साड़ी पहने है और एक नारंगी रंग की कुरती पहने है - यह सब देख चन्द्रमुखी के मन में कुछ घृणा-सी उत्पन्न हुई। बड़ी बहू ने देखा कि चन्द्रमुखी के वयस्क होने पर भी उसका सौन्दर्य कम नहीं हुआ है। दोनों ही सम्भवत: समवयस्क है, किन्तु बड़ी बहू ने मन-ही-मन इसे स्वीकार नहीं किया। इस गांव में पार्वती के अतिरिक्त इतना सौन्दर्य और किसी में नहीं देखा।
आश्चर्यित होकर पूछा-'तुम कौन हो?'
चन्द्रमुखी ने कहा-'मैं आपकी ही एक प्रजा हूं, खजाने की मालगुजारी कुछ बाकी पड़ गयी थी, उसी को देने आयी हूं।'
बड़ी बहू ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा-'तो यहां क्यों आयी, कचहरी में जाओ।'
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