उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
सास ने विरक्त होकर कहा-'अच्छा यही सही, पर इसे मैं पाठशाला नहीं जाने दूंगी।'
'लिखना-पढ़ना नहीं सीखेगी?'
'क्या होगा सीखकर बहू? एक-आध चिट्ठी-पत्री लिख लेना, रामायण-महाभारत पढ़ लेना ही काफी है। फिर तुम्हारी पारो को न जजी करनी है और न वकील होना है।'
अंत में बहू चुप हो गई। उस देवदास ने बहुत डरते-डरते घर में प्रवेश किया। पार्वती ने आदि अंत तक सारी घटना अवश्य ही कह दी होगी, इसमें उसे कोई संदेह नहीं था। परंतु घर आने पर उसका लेशमात्र भी आभास न मिला, वरन मां से सुना कि आज गोविंद पंडितजी ने पार्वती को खूब मारा है, इसी से अब वह भी पाठशाला नहीं जाएगी। इस आनंद की अधिकता से वह भली-भांति भोजन भी नहीं कर सका। किसी तरह झटपट खा-पीकर दौड़ा हुआ पार्वती के पास आया और हांफते-हांफते कहा-'तुम अब पाठशाला नहीं जाओगी?'
'नहीं।'
'कैसे?'
'मैंने कहा कि पंडितजी मारते हैं।'
देवदास एक बार हंसा, उसकी पीठ ठोककर कहा कि उसके समान बुद्धिमती इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। फिर उसने धीरे-धीरे पार्वती के गाल पर पड़े हुए नीले दाग ही सयत्न परीक्षा कर निःश्वास फेंककर कहा-'अहा!'
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