उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि दो दिन जीते रहेंगे या नहीं। पर पार्वती के पास जाना जरूरी है। इस समय उनके मन में पिछले दिनों के बहुत-से झूठे आचार-व्यवहार और बहुत-सी झूठी बातें एक-एक करके स्मरण आने लगीं। किन्तु अन्तिम दिन की इस प्रतिज्ञा को सच करना ही होगा। चाहे जिस तरह से हो, एक बार उसे दर्शन देना ही होगा। पर अब इस जीवन की अधिक मियाद बाकी नहीं है, इसी की विशेष चिन्ता है। देवदास जब बैलगाड़ी में बैठ गये, तो उन्हें माता का ध्यान आया। वे व्याकुल होकर रो पड़े। जीवन के इस अन्तिम समय में एक और स्नेहमयी पवित्र प्रतिमा की छाया दिखायी पडी- यह छाया चन्द्रमुखी की थी। जिसे पापिष्ठा कहकर सर्वदा घृणा की, आज उसी को जननी की बगल में गौरवमय आसन पर आसीन देख उनकी आंखों से झर-झर जल झरने लगा। अब इस जीवन में उससे फिर कभी भेट नहीं होगी और तो क्या वह बहुत दिन तक उनके विषय में कोई खबर तक न पायेगी!
तब भी पार्वती के पास चलना होगा। देवदास ने प्रतिज्ञा की थी कि एक बार वे और भेंट करेंगे। आज उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करना होगा। रास्ता अच्छा नहीं है। वर्षा के कारण कहीं-कहीं जल जमा हो गया है और कहीं अगल-बगल की पगडंडी कटकर गिर पड़ी है। सारा रास्ता कीचड़ से भरा हुआ है। बैलगाड़ी हचक-हचक कर चलती है। कहीं उतर कर चक्का ठेलना पड़ता है, कहीं बैलों को बेरहमी के साथ मारना पड़ता है - चाहे जिस तरह से हो, यह सोलह कोस का रास्ता तय करना ही होगा। हर-हर करके ठंडी हवा बह रही थी।
आज भी उन्हें संध्या के बाद विषम ज्वर चढ़ आया। उन्होंने डरकर पूछा-'गाड़ीवान, और कितना चलना होगा?'
गाड़ीवान ने जवाब दिया-'बाबू, अभी आठ-दस कोस और चलना है।'
'जल्दी से चलो, तुम्हें अच्छा इनाम मिलेगा।'- जेब में सौ रुपये का नोट था, उसी को दिखलाकर कहा- 'जल्दी चलो, सौ रुपये इनाम दूंगा।'
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