उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
इसके बाद कब और किस भांति सारी रात बीत गयी - देवदास को इसकी खबर नहीं। बराबर अचेत रहे। सुबह जब ज्ञान हुआ तो कहा-'अरे अभी कितनी दूर है? क्या इस रास्ते का अन्त नहीं होगा?'
गाड़ीवान ने कहा-'अभी छ: कोस है।'
देवदास ने एक गहरी सांस लेकर कहा-'जरा जल्दी चलो, अब समय नहीं है।'
गाड़ीवान इसे समझ न सका, किन्तु नये उत्साह से बैलों को ठोंक-ठाककर और गाली-गलौज देकर हांकने लगा। प्राणपण से गाड़ी चल रही थी, भीतर देवदास छटपटा रहे थे। एकमात्र यही विचार चक्कर लगा रहा था कि भेंट होगी या नहीं? पहुंच सकेंगे या नहीं?
दोपहर के समय गाड़ीवान ने बैलों को भूसी खाने को दी, स्वयं भी दाना पानी किया। फिर पूछा-'बाबू, आप कुछ अन्न-जल नहीं करेंगे?'
'नहीं, बड़ी प्यास लगी है, थोड़ा पानी दे सकते हो?'
उसने पास की पोखरी से पानी ला दिया। आज संध्या के बाद बुखार के साथ देवदास की नाक की राह बूंद-बूंद खून गिरने लगा। उन्होंने भर-जोर नाक को दबाया। फिर मालूम हुआ कि दांत के पास से खून बाहर आ रहा है। सांस लेने में भी कष्ट होने लगा। हांफते-हांफते कहा-'और कितनी दूर...?'
गाड़ीवान ने कहा-'दो कोस और है। रात को दस बजे पहुंचेगे।'
देवदास ने बड़े कष्ट के साथ रास्ते की ओर देखकर कहा- भगवन!'
गाड़ीवान ने पूछा-'बाबू, कैसी तबीयत है?
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