उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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दिन पर दिन बीतता जाता था और इन दोनों बालक-बालिकाओं के आनंद की सीमा नहीं थी। सारे दिन वे इधर-उधर घूमा करते थे, संध्या के समय लौटने पर डांट-डपट के अतिरिक्त मार-पीट भी खूब पड़ती थी। फिर सुबह होते ही घर से निकल भागते थे और रात को आने पर मारपीट और घुड़की सहते थे। रात में सुख की नींद सोते; फिर सवेरा होते ही भागकर खेल-कूद में जा लगते। इसका दूसरा कोई संगी-साथी न था, जरूरत भी नहीं थी। गांव में उपद्रव और अत्याचार करने के लिए यही दोनों काफी थे। उस दिन आँखें लाल किए सारे तालाब को मथकर पंद्रह मछलियां पकड़ीं और योग्यतानुसार आपस में हिस्सा लगाकर घर लौटे। पार्वती की माता ने कन्या को मार-पीठकर घर में बंद कर दिया। देवदास के विषय में ठीक नहीं जानता; क्योंकि वह इन सब बातों को किसी प्रकार प्रकट नहीं करता। जब पार्वती रो रही थी, उस समय दो या ढाई बजे थे। देवदास ने आकर एक बार खिड़की के नीचे से बहुत मीठे स्वर से बलाया-'पारो, ओ पारो!'
पार्वती ने संभवत: सुना, किंतु क्रोधवश उत्तर नहीं दिया। तब उसने एक निकटवर्ती चम्पा के पेड़ पर बैठकर सारा दिन बिता दिया। संध्या के समय धर्मदास समझा-बुझाकर बड़े परिश्रम से उसे उतारकर घर पर लाया।
यह केवल उस दिन हुआ। दूसरे दिन पार्वती भोर से ही देव दादा के लिए बेचैन हो रही थी, लेकिन देवदास नहीं आया। वह पिता के साथ पास के गांव में निमंत्रण में गया हुआ था। देवदास जब नहीं आया तो पार्वती उदासीन मन से घर से बाहर निकली। कल ताल में उतरने के समय देवदास ने पार्वती को तीन रुपये रखने के लिए दिये थे कि कहीं खो न जाएं। उन तीनों रुपयों को उसने आंचल की छोर में बांध लिया था। उसने आंचल को हिरा-फिराकर और स्वयं इधर-उधर घूमकर कई क्षण बिताए। कोई संगी-साथी नहीं मिला, क्योंकि उस समय प्रातःकाल की पाठशाला थी। पार्वती तब दूसरे गांव में गई।
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