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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


वहां मनोरमा का मकान था। मनोरमा पाठशाला में पढ़ती थी, उसकी उम्र कुछ बड़ी थी। परंतु वह पार्वती की सखी थी। बहुत दिनों से आपस में भेंट नहीं हुई थी। आज पार्वती ने अवकाश पा उसके घर पर जाकर पुकारा-'मनो घर में है?'

'पारो?'

'हां-मनो कहां है बुआ?'

'वह पाठशाला गई है -तुम नहीं जाती?'

'मैं पाठशाला नहीं जाती, देव दादा भी नहीं जाते।'

मनोरमा की बुआ ने हंसकर कहा-'तब तो अच्छा है, तुम भी पाठशाला नहीं जाती और देव दादा भी नहीं।'

'नहीं, हम लोग कोई नहीं जाते।'

'अच्छी बात है, पर मनो पाठशाला गई है।'

बुआ ने बैठने के लिए कहा, पर वह बैठी नहीं, लौट आयी। रास्ते में रसिकपाल की दुकान के पास तीन वैष्णवी तिलक-मुदा लगाये, हाथ में खंजड़ी लिये भिक्षा मांग रही थीं। पार्वती ने उन्हें बुलाकर कहा - 'ओ वैष्णवी तुम लोग गाना जानती हो?'
एक ने फिरकर देखा और कहा-'जानती हूं, क्या है बेटी?'

'तब गाओ!'

तीनों खड़ी हो गयीं। एक ने कहा - 'ऐसे कैसे गाना होगा, भिक्षा देनी होगी। चलो तुम्हारे घर पर चलकर गायेगे।'

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