उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'हाथ पर नाम गुदा था'
पार्वती ने कहा-'हां, जब पहले-पहल कलकत्ता गये थे तो लिखाया था।'
'एक नीलम की अंगूठी थी...'
'पिता के समय में उसे बड़े चाचा ने दिया। मैं जाऊंगी...' कहते-कहते पार्वती दौड़ पड़ी। महेन्द्र ने हत्वुद्धि होकर कहा-'ओ मां, कहां जाओगी?'
'देवदास के पास।'
'वे अब नहीं हैं, डोम ले गये।'
'अरे, बाप रे बाप!'- कहकर रोती-रोती पार्वती दौड़ी।
महेन्द्र ने दौड़कर सामने आकर बाधा दी। कहा-'क्या पागल हुई हो, मां! कहां जाओगी?' पार्वती ने महेन्द्र की ओर एक तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-'महेन्द्र, क्या मुझे सचमुच पागल समझ रखा है? रास्ता छोड़ो।' उसकी ओर देखकर महेन्द्र ने रास्ता छोड़ दिया, चुपचाप पीछे-पीछे चलने लगा। बाहर तब भी नायब-गुमाश्ता आदि काम कर रहे थे। वे लोग देखने लगे।
चौधरी जी ने चश्मा लगाकर पूछा-'कौन जा रहा है?'
महेन्द्र ने कहा-'छोटी मां।'
'यह क्यों? कहां जाती हैं?' महेन्द्र ने कहा-'देवदास को देखने।'
भुवन चौधरी ने चिल्लाकर कहा-'तुम सभी की बुद्धि मारी गयी है! पकड़ो-पकड़ो, पकड़कर उसे ले आओ। सब पागल हो गये! ओ महेन्द्र, जल्दी करो, दौड़ो!'
इसके बाद नौकर-नौकरानियों ने मिलकर पार्वती को पकड़ा और उसकी मूर्च्छित देह को भीतर ले गये। दूसरे दिन उसकी मूर्च्छा टूटी, पर उसने कोई बात नहीं कही, केवल एक दासी को बुलाकर पूछा- 'रात को वे आते थे या नहीं? सारी रात...!' इसके बाद पार्वती चुप हो रही।
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