उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास अनमने से हो रहे थे। उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया।
'तबीयत अच्छी नहीं है?' देवदास सहसा बिछौना से उठ बैठे। व्यग्र भाव से उनके मुख की ओर देखकर पूछा- 'अच्छा चुन्नी बाबू, तुम्हारे हृदय में किसी बात का क्लेश नहीं है?'
चुन्नीलाल ने हंसकर कहा- 'कुछ नहीं।'
'जीवन पर्यन्त कभी क्लेश नहीं हुआ?'
'यह क्यों पूछते हो?'
'मुझे सुनने की बड़ी इच्छा है।'
'ऐसी बात है तो किसी दूसरे दिन सुनना।'
देवदास ने पूछा- 'अच्छा चुन्नी, तुम सारी रात कहां रहते हो?'
चुन्नीलाल ने एक मीठी हंसी हंसकर कहा- 'यह क्या तुम नहीं जानते?'
'जानता हूं, लेकिन अच्छी तरह नहीं।'
चुन्नीलाल का मुंह उत्साह से उज्ज्वल हो उठा। इन सब आलोचनाओं में और कुछ रहे या न रहे, किन्तु एक आंख की ओट की लज्जा रहती है। दीर्घ अभ्यास के दोष से वह चली गई। कौतुक से आंख मूंदकर पूछा- 'देवदास यदि अच्छी तरह से जानना चाहते हो तो ठीक मेरी तरह बनना पड़ेगा। कल मेरे साथ चलोगे?'
देवदास ने कुछ सोचकर कहा- 'सुनता हूं, वहां पर बड़ा मनोरंजन होता है। क्या यह सच है?'
'बिल्कुल सच है।'
'यदि ऐसी बात है तो मुझे एक बार ले चलो, मैं भी चलूंगा।'
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