उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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दूसरे दिन संध्या के समय चुन्नीलाल ने देवदास के कमरे में आकर देखा कि वे व्यस्त भाव से अपना सब माल-असबाब बांध-छान रहे हैं। विस्मित होकर पूछा- 'क्या नहीं जाओगे?'
देवदास ने किसी ओर न देखकर कहा- 'हां, जाऊंगा।'
'तब यह सब क्या करते हो?'
'जाने की तैयारी कर रहा हूं।'
चुन्नीलाल ने कुछ हंसकर सोचा, अच्छी तैयारी है! कहा - 'क्या तुम सब घर-द्वार वहां पर उठा ले चलोगे?
'तब किसके पास छोड जाऊंगा?'
चुन्नीलाल समझ नहीं सके, कहा 'मैं अपनी चीज-वस्तु किसी पर छोड़ जाता हूं? सभी तो बासे में पड़ी रहती हैं।' देवदास ने सहसा सचेत होकर आंखें ऊपर को उठायीं, लज्जित होकर कहा-'चुन्नी बाबू, आज मैं घर जा रहा हूं।'
'यह क्यों, कब आओगे?'
देवदास ने सिर हिलाकर कहा- 'अब मैं फिर नहीं आऊंगा।' विस्मित होकर चुन्नीलाल उनके मुंह की ओर देखने लगे।
देवदास ने कहा- 'यह रुपये लो, मुझ पर जो कछ उधार हो उसे इससे चुकती कर देना। यदि कुछ बचे तो दास-दासियों में बांट देना। अब मैं फिर कभी कलकत्ता नहीं लौटूंगा।' देवदास मन-ही-मन कहने लगे - कलकत्ता आने से मेरा बड़ा खर्च पड़ा।
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