उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
अस्तु, महेंद्र दूसरे ही दिन यशोदा को लाने गया। उसने वहां जाकर कौन-सा कौशल किया, यह मैं नहीं जानता, किंतु चार ही दिन बाद यशोदा आ गयी। उस दिन पार्वती सारी देह में विचित्र, नये और बहुत मूल्यवान गहने पहने थी। कुछ ही दिन हुए इन्हें भुवन बाबू ने कलकत्ता से मंगवा लिया था। पार्वती आज वही सब गहने पहने हुए थी। रास्ते में आते समय यशोदा बहुतेरी क्रोध और अभिमान की बातों को मन-ही-मन दुहरा रही थी। नयी बहू को देखकर वह एकदम अवाक् हो गयी। कोई भी विद्वेष की बात उसके मन में नहीं रही। केवल अस्फुट स्वर से कहा-'यही!'
पार्वती यशोदा का हाथ पकड़ कर घर ले गयी। पास में बैठकर एक पंखा हाथ में लेकर कहा-'यशोदा, मां के ऊपर इतना क्रोध करना होता है?'
यशोदा का मुख लज्जा से लाल हो उठा। पार्वती तब सारे गहने एक-एक करके यशोदा के अंग में पहनाने लगी। यशोदा ने विस्मित होकर पूछा-'यह क्या?'
'कुछ नहीं, सिर्फ मां की साथ।'
गहना पहनने से यशोदा का शरीर खिल उठा और पहन चुकने पर उसके अधर पर हंसी की रेखा दिखाई दी। सारे शरीर में आभूषण पहनाकर निराभरण पार्वती ने कहा-'यशोदा, मां के ऊपर भला क्रोध करना चाहिए?'
'नहीं, नहीं क्रोध कैसा? क्रोध किस पर?'
'सुनो यशोदा, यह तुम्हारे बाप का घर है; इतने बड़े मकान में कितने ही दास-दासियों की जरूरत है। मैं भी तो एक दासी हूं। छि: बेटी, तुच्छ दासी के ऊपर इतना क्रोध करना क्या तुम्हें शोभा देता है?'
यशोदा अवस्था में बड़ी है, किंतु बातचीत करने में छोटी है। वह विह्वल हो गयी। पंखा हांकते-हांकते पार्वती ने फिर कहा-'दुखी की लड़की को तुम लोगों की दया से यहां पर थोड़ा-सा स्थान मिला है; मैं तो भी उन्हीं में से एक हूं। आश्रित....।'
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