उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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दो-तीन दिवस देवदास ने पागलों की भांति इधर-उधर घूम-घामकर बिताये। धर्मदास कुछ कहने गया तो उस पर आंखें लाल-लाल कर धमका के भगा दिया। उनका विकृत भाव देखकर चुन्नीलाल को भी कुछ कहने का साहस न हुआ। धर्मदास ने रोकर कहा-'चुन्नी बाबू, देवदास ऐसे क्यों हो गये?'
चुन्नीलाल ने कहा-'क्या हुआ धर्मदास?'
एक अंधे ने दूसरे अंधे से रास्ता पूछा। दोनों में एक भी हृदय की नहीं जानते, आंखे पोंछते-पोंछते धर्मदास ने कहा-'चुन्नी बाबू, जिस तरह से हो सके, देवदास को उनकी मां के पास पहुँचवाओ; अगर अब लिखे पढ़ेंगे नहीं तो यहां रहने की जरूरत क्या?'
बात बहुत सच है। चुन्नीलाल सोचने लगे। चार-पांच दिन बाद एक दिन संध्या के ठीक उसी समय चुन्नी बाहर रहे थे। देवदास ने कहीं से आकर उनका हाथ थामकर कहा-'चुन्नी बाबू? वहीं जाते हो?'
चुन्नी ने कुंठित होकर कहा-'हां, नहीं कहो तो न जाऊं।'
देवदास ने कहा-'नहीं, मैं आप को मना नहीं करता हूं; पर यह कहो, किस आशा से तुम वहां जाते हो ?'
'आशा क्या है? यों ही जी बहलाने को।'
'जी बहलाने? मेरा तो जी नहीं बहला। मैं भी जी बहलाना चाहता हूं।'
चुन्नी बाबू कुछ देर तक उनके मुख की ओर देखते रहे। संभवत: उनके मुख से उनके मन के भाव को जानने की चेष्टा करते थे। फिर कहा-'देवदास, तुम्हें क्या हुआ है, साफ-साफ कहो?'
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