उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
यह बात चंद्रमुखी कई बार सुन चुकी है। दो-एक बार उसने सोचा कि कहीं दीवाल से टकराकर वे लहू की नदी बहाकर मर न जायें। देवदास को वह प्यार करती थी। देवदास ने शराब के ग्लास को ऊपर को उछाल दिया, कौच के पांव से लगकर चह चूर-चूर हो गया। फिर तकिये के सहारे लेटकर लड़खड़ाती हुई जबान से कहा-'मुझमें उठने का बल नहीं है, इसी से यहां पड़ा रहता हूं, ज्ञान नहीं है, इसी से तुम्हारे मुख की ओर देखकर बात करता हूं, चंद.. र. तब अज्ञानता नहीं रहती, थोड़ा-सा ज्ञान रहता है। तुम्हें छू नहीं सकता मुझे बड़ी घृणा होती है।'
चंद्रमुखी ने आंख निकालकर धीरे-धीरे कहा-'देवदास, यहां कितने ही आदमी आते हैं, किंतु वे लोग शराब छूते तक नहीं।'
देवदास आंख निकालकर उठ बैठे। कुछ झूमते हुए इधर-उधर हाथ फेककर कहा-'छूते नहीं? मेरे पास बंदूक होती तो गोली मार देता वे लोग मुझसे भी अधिक पापिष्ठ हैं, चंद्रमुखी!'
कुछ देर सोचने लगे; फिर कहा-'यदि कभी शराब का पीना छोड़ दूं - यद्यपि छोड़ूंगा नहीं-तो फिर यहां कभी न आऊंगा। मुझे उपाय मालूम है; पर उन लोगों का क्या होगा?' थोडा रुककर फिर कहने लगे - बड़े दुख से शराब को अपनाया है। मेरी विपद और दुख की साथिन! अब तुझे कभी नहीं छोड़ सकता।' देवदास तकिये के ऊपर मुंह रगडने लगे। चंद्रमुखी ने चटपट पास आकर मुख उठा लिया। देवदास ने भौं चढ़ाकर कहा-'छि:, छूना नहीं, अभी मुझमें ज्ञान है। चंद्रमुखी, तुम नहीं जानती - केवल मैं जानता हूं कि मैं तुमसे कितनी घृणा करता हूं। सर्वदा घृणा करूंगा-तब भी आऊंगा, तब भी बैठूंगा, तब भी बातें करूंगा। इसे छोड़ दूसरा उपाय नहीं है। इसे क्या तुम लोग कोई समझ सकती हो? हा-हा! लोग पाप अंधेरे में करते हैं, और मैं यहां मतवाला हूं -ऐसा उपयुक्त स्थान जगत में और कहां है? और तुम लोग.... ' देवदास ने दृष्टि ठीक कर कुछ देर तक उसके विषण्ण मुख की ओर देखकर कहा-'आहा! सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति! लांछना, भर्त्सना, अपमान, अत्याचार उपद्रव इस सबको स्त्री सह सकती है - तुम्हीं इसका उदाहरण हो!'
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