उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
फिर चित होकर लेट गए, धीरे-धीरे कहने लगे - 'चंद्रमुखी कहती है कि वह मुझे बहुत प्यार करती है। मैं यह नहीं चाहता-नहीं चाहता-नहीं चाहता-लोग थियेटर करते हैं, मुख में चूना और कालिख पोतते हैं - भिक्षा मांगते हैं -राजा बनते हैं -प्यार करते हैं, कितनी ही प्यार की बातें करते हैं -कितना रोते हैं -मानो सब ठीक है, सत्य है! मेरी चंद्रमुखी थियेटर करती है, मैं देखता हूं। किंतु वह जो बहुत याद आती है, क्षण भर में सब हो गया। वह कहां चली गई - और किस रास्ते से मैं आया हूं? अब एक सर्व जीवनव्यापी मस्त अभिनय आरंभ हुआ है, एक घोर तवाला- और यही एक-होने दो, हो-हर्ज क्या? आशा नहीं, है वही भरोसा है -सुख भी नहीं, साध भी नहीं-वाह! बहुत अच्छा!'
इसके बाद देवदास करवट बदलकर न जाने क्यों बक-झक करने लगे। चंद्रमुखी उन्हें नहीं समझ सकी। थोड़ी देर में देवदास सो गये। चंद्रमुखी उनके पास आकर बैठी। आंचल भिगोकर मुख पोंछ दिया और भीगे हुए तकिये को बदल दिया। एक पंख लेकर कुछ देर हवा की, बहुत देर तक नीचा सिर किये बैठी रही। तब रात के एक बज गये थे, वह दीपक बुझा कर द्वार बंद कर दूसरे कमरे में चली गयी।
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