उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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दोनों भाई- द्विजदास और देवदास - तथा गांव के बहुत-से लोग जमीदार मुखोपाध्याय की अंतेष्टि- किया समाप्त कर घर लौट आये। द्विजदास चिल्ला-चिल्लाकर रोते-रोते पागल की भांति सो गये, गांव के पांच-पांच, छः-छ: आदमी उनको पकड़कर रख नहीं सकते थे और देवदास शांत भाव से खंभे को पास बैठे थे। मुख में एक शब्द नहीं था, आंखों में एक बिंदु जल नहीं था, कोई उनको पकड़ने भी नहीं जाता था, कोई सान्त्वना भी नहीं देता था। केवल मधुसूदन घोष ने एक बार पास आकर कहा- 'भाई, यह सब ईश्वर के अधीन की बात है। इसमें....।'
देवदास ने द्विजदास की ओर हाथ से दिखाकर कहा-'वहां... '
घोष महाशय ने अप्रतिभ होकर कहा-'हां-हां, उनको तो बहुत शोक...।' इत्यादि कहते-कहते चले गये। और कोई पास नहीं आया। दोपहर बीतने पर देवदास मूर्च्छिता माता के पांव के पास जाकर बैठे। वहां पर बहुत-सी स्त्रियां उनको घेरकर बैठी थीं। पार्वती की दादी भी उन्ही में बैठी थी। टूटे-टूटे स्वर से शोकार्त विधवा माता से कहा-'बहू, देखो, देवदास आया है।'
देवदास ने बुलाया-'मां!'
उन्होंने केवल एक बार देखकर कहा-'देवदास!' फिर डबडबायी हुई आँखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। स्त्रियां भी चिल्ला उठीं। देवदास कुछ देर तक माता के चरणों में अपना मुख ढके रहे, फिर उठकर चले गये-पिता के सोने के कमरे में। आंखों में जल नहीं था। मुख गंभीर तथा शांत था। लाल-लाल आंखों को ऊपर चढ़ाये हुए जाकर भूमि पर बैठ गये। उस मूर्ति को यदि कोई देखता तो संभवत: भयभीत हो जाता। दोनों कनपटियां फूली हुई थीं। बड़े-बड़े रूखे केश ऊपर की ओर खड़े थे। तपाये हुए सोने के समान शरीर का रंग काला पड़ गया। कलकत्ता के जघन्य अत्याचार में रातों का दीर्घ जागरण हुआ था- और उस पर पिता की मृत्यु हुई। एक वर्ष पहले अगर उनको कोई देखे होता तो संभवत: एकाएक को पहचान न सकता। कुछ देर के बाद पार्वती की माता उन्हें ढूंढती हुई दरवाजा ठेलकर भीतर आई और पुकारा-'देवदास!'
'क्या है छोटी चाची?'
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