उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'ऐसा करने से तो नहीं चलेगा।'
देवदास ने उनके मुंह की ओर देखकर कहा-'क्या करता हूं चाची?' चाची सब समझती थी, किंतु कह नहीं सकी। देवदास के सिर पर हाथ फेरते-फेरते कहा-' देवता- मेरा!'
'क्या चाची?' देवता- इस बार देवदास ने उसकी गोद में अपना मुख छिपा लिया, आंखों से दो बूंद गरम-गरम आंसू गिर पड़े। शोकार्त परिवार का दिन भी किसी भांति बीता। नियमित रूप से प्रभावित हुआ, रोना-धोना बहुत कम हो गया। द्विजदास धीरे-धीरे अपने आपे में आये। उनकी माता भी कुछ संभल कर बैठी। आंख पोंछते-पोंछते आवश्यक काम करने लगी। दो दिन बाद द्विजदास ने देवदास को बुलाकर कहा- 'देवदास, पिता के श्राद्व-कर्म के लिए कितना रुपया खर्च करना उचित है?' देवदास ने भाई के मुख की ओर देखकर कहा-'जो आप उचित समझें, करें।'
'नहीं भाई, केवल मेरे ही उचित समझने से काम नहीं चलेगा, अब तुम भी बड़े हुए तुम्हारी सम्मति भी लेना आवश्यक है।'
देवदास ने पूछा-'कितना नकद रुपया है।'
'बाबूजी की तहवील में डेढ़ लाख रुपया जमा है। मेरी सम्मति से दस हजार रुपये खर्च काफी होगा, क्या कहते हो?'
'मुझे कितना मिलेगा?'
द्विजदास ने कुछ इधर-उधर करके कहा-'तुम्हें भी आधा मिलेगा, दस हजार खर्च होने से सत्तर हजार तुम्हें और सत्तर हजार मुझे मिलेगा।'
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