उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'मां नकद रुपया लेकर क्या करेगीं? वे तो घर की मालकिन ही हैं। हम लोग उनका खर्च संभालेगे।'
देवदास ने कुछ सोचकर कहा-'मेरी सम्मति है कि आपके भाग से पांच हजार रुपया खर्च हो और मेरे भाग से पच्चीस हजार रुपया खर्च हो, बाकी पच्चीस हजार मां के नाम जमा रहेगा। आपकी क्या सम्मति है?'
पहले द्विजदास कुछ लज्जित हुए। फिर कहा-'अच्छी बात है। किंतु यह तो जानते ही हो कि मेरे स्त्री-पुत्र और कन्या है। उनके यज्ञोपवीत, विवाह आदि में बहुत खर्च पड़ेगा। इसलिए यही सम्मति ठीक है।' फिर कुछ ठहर कर कहा-'तो क्या जरा-सी इसकी लिखा-पढ़ी कर दोगे?'
'लिखने-पढ़ने का क्या काम है? यह काम अच्छा नहीं मालूम होगा। मेरी इच्छा है कि रुपये पैसे की बात इस समय छिपी-छिपाई रहे।'
'तो अच्छी बात है; किंतु क्या जानते हो भाई...?'
'अच्छा मैं लिखे देता हूं।' उसी दिन देवदास ने लिख-पढ़ दिया। दूसरे दिन दोपहर के समय देवदास सीढ़ी से नीचे उतर रहे थे। बीच में पार्वती को देखकर रुक गए। पार्वती ने मुख की ओर देखा-देखकर पहचानते हए उसे क्लेश हो रहा था। देवदास ने गंभीर और शांत मुख से आकर कहा-'कब आयीं पार्वती?'
वही कंठ-स्वर आज तीन वर्ष बाद सुना। सिर नीचा किये हुए पार्वती ने कहा-'आज सुबह आयी।'
'बहुत दिन से भेंट नहीं हुई अच्छी तरह से तो रही?'
पार्वती सिर नीचा किये रही।
'चौधरी महाशय अच्छी तरह से हैं? लड़के-लडकी सब अच्छी तरह से हैं?'
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