उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'सब अच्छी तरह से हैं।' पार्वती ने एक बार मुख की ओर देखा, पर एक भी बात पूछ नहीं सकी वे कैसे हैं, क्या करते हैं, इत्यादि वह कुछ भी पूछ नहीं सकी।
देवदास ने पूछा-'अभी तो यहां कुछ दिन रहना होगा?'
'हां।'
'तब फिर क्या'-कह कर देवदास चले।
श्राद्ध समाप्त हो गया। उसका वर्णन करने में बहुत कुछ लिखना पड़ेगा, इसी से उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। श्राद्ध के दूसरे दिन पार्वती ने धर्मदास को अकेले में बुलाकर उसके हाथ में एक सोने का हार देकर कहा-'धर्म, अपनी कन्या को यह पहना देना।'
धर्मदास ने मुंह की ओर देखकर आर्द्र नेत्र और करूण कंठ-स्वर से कहा-'अहा! तुमको बहुत दिनों से नहीं देखा, सब कुशल तो है?'
'सब कुशल है। तुम्हारी लडकी-लडके तो अच्छे हैं?'
'हां पारो, सब अच्छे हैं।'
'तुम अच्छे हो?'
इस बार दीर्घ निःश्वास खीचकर धर्मदास ने कहा-'क्या अच्छा हूं? अब यह जीवन भार-सा मालूम होता है - मालिक ही चले गये...।' धर्मदास शोक के आवेग में कुछ और कहना चाहता था, किंतु पार्वती ने बाधा दी। इस सब बातों को सुनने के लिए उसने हार नहीं दिया था। पार्वती ने कहा-'यह क्यों धर्मदास, तुम्हारे जाने से देव दादा को कौन देखेगा?'
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