उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
धर्मदास ने माथा ठोककर कहा-'जब छोटे लड़के थे, तब देखने की जरूरत थी। अब नहीं देखने से ही अच्छा है।'
पार्वती ने और पास आकर कहा-'धर्म, एक बात सच-सच बताओगे?'
'क्यों नहीं बताऊंगा, पारो?'
'तब सच-सच कहो कि देवदास इस समय अभी क्या कर रहे हैं?'
'मेरा सिर कर रहे हैं, और क्या करेंगे?'
'धर्मदास, साफ-साफ क्यों नहीं कहते?'
धर्मदास ने फिर सिर पीटकर कहा-'साफ-साफ क्या कहूं? भला यह कुछ कहने की बात है। अब मालिक नहीं हैं। देवदास के हाथ अगाध रुपया लग गया है, अब क्या रक्षा हो सकेगी?'
पार्वती का मुख एकबारगी मलिन पड़ गया। उसने आभास और संकेत से कुछ सुना था। दुखित होकर पूछा-'क्या कहते हो धर्मदास?' वह मनोरमा के पत्रों से जब कोई समाचार पाती थी तो उस पर विश्वास नहीं करती थी।
धर्मदास सिर नीचा करके कहने लगा-'खाना नहीं, पीना नहीं, सोना नहीं, केवल बोतल पर बोतल शराब, तीन-तीन, चार-चार दिन तक न जाने कहां रहते हैं, कुछ पता नहीं। कितने ही रुपये फूंक दिए। सुनता हूं, कई हजार रुपये का गहना बनवा दिया।'
पार्वती सिर से पैर तक सिहर उठी-'धर्मदास, यह क्या कहते हो? क्या यह सब सच है?'
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