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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


धर्मदास ने अपने मन में ही कहा-शायद तुम्हारी बात सुनें, तुम एक बार मनाकर देखो। कैसा शरीर था, कैसा हो गया? ऐसे असंयम और अत्याचार से कितने दिन जिऐंगे? किससे यह बात कहूं मां, बाप, भाई से ऐसी बात नहीं कही जाती। धर्मदास ने फिर सिर ठोंक कर कहा-'इच्छा होती है, जहर खाकर मर जाऊं पारो, अब आगे जीने की साध नहीं है।'

पार्वती उठकर चली गई। नारायण बाबू के मरने का समाचार पाकर वह चली आई थी। सोचा था, इस विपत्ति के समय देवदास के पास जाना आवश्यक है। किंतु उसके परमप्रिय देवदास की यह अवस्था है! कितनी ही बातें उसके मन में उठने लगीं, जिनका अंत नहीं। जितना धिक्कार उसने देवदास को दिया, उसका हजार गुना अपने को दिया। हजार बार उसके मन में उठा कि क्या उसके होने पर वह ऐसे बिगड़ सकते? पहले ही उसने अपने पांव में आप कुठार मारा, किंतु वह कुठार उसके सिर पर गिरा। उसके देव दादा ऐसे हो रहे हैं।- इस प्रकार नष्ट हो रहे हैं, और वह दूसरे की गृहस्थी के बनाने में लगी हुई है, दूसरे को अपना समझकर नित्य अन्न बांट रही है, और उसके सर्वस्व-आज भूखों मर रहे हैं! पार्वती ने प्रतिज्ञा की आज वह देवदास के पांव में माथा पटक कर प्राण त्याग देगी।

अभी भी संध्या होने में कुछ देर है। पार्वती ने देवदास के कमरे में प्रवेश किया। देवदास चारपाई पर बैठे हुए हिसाब देख रहे थे, इधर देखा-पार्वती धीरे-धीरे किवाड़ बंद कर फर्श पर बैठ गई। देवदास ने सिर उठाकर हंसकर उसकी ओर देखा, उनका मुख विषण्ण, किंतु शांत था। हठात कौतुक से पूछा-' यदि मैं अपवाद उठाऊं तो?'

पार्वती ने अपनी सलज्ज, श्याम कमलवत दोनों आंखों से एक बार उनकी ओर देखा, फिर नजर नीची कर ली। देवदास की इस बात ने भली-भांति जता दिया कि वह बात उनके हृदय में आजन्म के लिए अंकित हो गई है। वह देवदास से कितनी ही बातें कहने के लिए आयी थी, किंतु सब भूल गई, एक भी बात न कह सकी।

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