उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने फिर हंसकर कहा-'समझता हूं, समझता हूं! लज्जा लगती है न?'
तब भी पार्वती कोई बात न कह सकी। देवदास ने कहा-'इसमें लज्जा की क्या बात है? हम तुम दोनों ही लड़कपन में बराबर एक साथ उठते-बैठते और खेलते थे। इसी बीच में एक गड़बड़ी हो गई। क्रोध करके जो तुम्हारे जी में आया कहा, और मैंने भी तुम्हारे सिर में यह दाग दे दिया। कैसा हुआ?'
देवदास की बात में श्लेष व विद्रूप का लेश भी नहीं था; हंसते-ही-हंसते पहले की बीती दुख की कहानी कह सुनाई। पार्वती का हृदय भी सुनकर फटने लगा। मुंह में आंचल देकर एक गहरी सांस खींचकर मन-ही-मन कहा-देव दादा, यह दाग ही मेरे ढाढ़स का कारण है, एकमात्र यही मेरा साथी है। तुम मुझे प्यार करते थे, इसी से दया करके, हम लोगों के बाल्य-इतिहास को इस रूप में, इस ललाट में अंकित कर दिया है। इससे मुझे लज्जा नहीं, कलंक नहीं, यह मेरे गौरव का चिह्न है।
'पारो!'
मुख से आंचल न हटाकर ही पार्वती ने कहा-'क्या?'
'तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा क्रोध आता है।' इस बार देवदास का कंठ-स्वर विकृत हो गया-'बाबूजी नहीं हैं, आज मेरे विपत्ति का समय है, किंतु तुम्हारे रहने से कोई चिंता न रहती! बड़ी भाभी को जानती ही हो, भाई साहब का स्वभाव भी तुमसे कुछ छिपा नहीं है; और तुम्हीं सोचो, मां को इस समय लेकर मैं क्या करूं, और मेरा कुछ ठिकाना ही नहीं कि क्या होगा? तुम्हारे रहने से मैं सब-कुछ तुम्हारे हाथ में सौंपकर निश्चिंत हो जाता-'क्यों पारो?'
पार्वती फफककर रो पड़ी।
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