उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने कहा-'रोती हो क्या? अब और कुछ नहीं कहूंगा।' पार्वती ने आंख पोंछते-पोंछते कहा-'पारो, अब तो तुम खूब पक्की घरनी हो गई हो न?'
घूंघट के भीतर-ही-भीतर होठ चबाकर मन-ही-मन उसने कहा-घरनी क्या हुई हूं! क्या सेमल का फूल कभी देव-सेवा में लगता है?
देवदास ने हंसते-हंसते कहा-'बड़ी हंसी आती है! तुम कितनी छोटी थीं और अब कितनी बड़ी हो गईं। बड़ा मकान, बड़ी जमीदारी है, बड़े-बड़े लडकी-लड़के हैं और सबसे बड़े चौधरी जी, क्यों पारो?'
चौधरी जी पार्वती के लिए बड़ी हंसी की चीज हैं; उनके ध्यान मात्र आने से उसे हंसी आ जाती है। इतने कष्ट में भी इसी से उसे हंसी आ गई। देवदास ने बनावटी गंभीरता से कहा-'क्या एक उपकार कर सकती हो?'
पार्वती ने मुख उठाकर कहा-'क्या?'
'तुम्हारे गांव में कोई अच्छी लड़की मिल सकती है?'
पार्वती ने खांसकर कहा-'अच्छी लड़की! क्या करोगे?'
'मिलने पर विवाह करूंगा। एक बार गृहस्थी बनाने की साध होती है।'
पार्वती ने गंभीरतापूर्वक पूछा-'खूब सुंदरी न?'
'हां, तुम्हारी तरह।'
'और खूब शांत?'
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