उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'कोई भी कहे; क्या यह बात सच है?'
देवदास ने छिपाया नहीं, कहा-'कुछ है?'
पार्वती ने कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद पूछा-'और कितने हजार रुपये का गहना गढ़ा दिया है?'
देवदास ने गंभीरता से कहा-'दिया नहीं है; गढ़ाकर रखा है। तुम लोगी?'
पार्वती ने हाथ फैलाकर कहा-'दो, यह देखो, मुझ पर एक भी गहना नहीं है।'
'चौधरी जी ने तुम्हें नहीं दिया?'
'दिया था; पर मैंने सब उनकी बड़ी लड़की को दे दिया।'
'जान पड़ता है अब तुम्हें जरूरत नहीं है।'
पार्वती ने मुख हिलाकर सिर नीचा कर लिया। देवदास की आखों में आंसू भर आया। देवदास ने मन-ही-मन सोचा कि साधारण दुःख से स्त्रियां अपने गहने खोलकर नहीं देतीं। किंतु आंख से निकलते हए आंसुओं को रोककर धीरे-धीरे कहा-'झूठी बात है; किसी स्त्री से मैंने प्रेम नहीं किया। किसी को मैंने गहना नहीं दिया।'
पार्वती ने दीर्घ निःश्वास फेंककर मन-ही-मन कहा-ऐसा ही मुझे भी विश्वास है।
कुछ देर तक दोनों ही चुप रहे। फिर पार्वती ने कहा-'किंतु प्रतिज्ञा करो कि अब शराब नहीं पीऊंगा।'
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