उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
367 पाठक हैं |
कालजयी प्रेम कथा
'यह नहीं कर सकता। तुम क्या प्रतिज्ञा कर सकती हो कि तुम मुझे भुला दोगी?'
पार्वती ने कुछ नहीं कहा। इसी समय बाहर से संध्या की शंख-ध्वनि हुई। देवदास ने खिड़की से बाहर देखकर कहा-'संध्या हो गई है, अब घर जाओ पारो!'
'मैं नहीं जाऊंगी, तुम प्रतिज्ञा करो।'
'क्यों, मैं नहीं कर सकता।'
'क्यों नहीं कर सकते?'
'क्या सभी सब कामों को कर सकते हैं?'
'इच्छा करने से अवश्य कर सकते हैं।' 'तुम मेरे साथ आज रात में भाग सकती हो?'
पार्वती का हृदय-स्पंदन सहसा बंद हो गया। अनजाने में धीरे से निकल गया-'यह क्या हो सकता है?'
देवदास ने जरा चारपाई के ऊपर बैठकर कहा-'पार्वती, किवाड़ खोल दो।' देवदास खड़े होकर धीमे भाव से कहने लगे -'पारो, क्या जोर देकर प्रतिज्ञा कराना अच्छा है? उससे क्या कोई विशेष लाभ है? आज की हुई प्रतिज्ञा कल शायद न रहेगी। क्यों मुझे झूठा बनाती हो?'
और भी कुछ क्षण यों ही निःशब्द बीत गये। इसी समय न जाने किस घर में टन-टन करके नौ बजा। देवदास भाव से कहने लगे - 'पारो, द्वार खोल दो।' पार्वती ने कुछ नहीं कहा।
'जा पारो!'
|