उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'मैं किसी तरह नहीं जाऊंगी।'- कहकर पार्वती अकस्मात पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुत देर तक फूट-फूटकर रोती रही। कमरे के भीतर इस समय गाढ़ा अन्धकार था, कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। देवदास ने केवल अनुमान से समझा कि पार्वती जमीन में पड़ी रो रही है, धीरे-धीरे बुलाया-'पारो!'
'देव दादा, मैं मर भी जाऊंगी, किन्तु कभी तुम्हारी सेवा नहीं कर सकी, यह मेरे आजन्म की साध है।'
अंधेरे में आंख पोंछते-पोंछते देवदास ने कहा-'वह भी समय आयेगा।'
'तब मेरे साथ चलो। यहां पर तुम्हें कोई देखने वाला नहीं है।'
'तुम्हारे मकान पर चलूंगा तो खूब सेवा करोगी?'
'यह मेरे बचपन की ही साध है। हे स्वर्ग के देवता! मेरी इस साध को पूर्ण करो इसके बाद यदि मर भी जाऊं तो भी दुख नहीं है।'
इस बार देवदास की आंखों में पानी भर आया।
पार्वती ने फिर कहा-'देवदास, मेरे यहां चलो!'
देवदास ने आंखें पोंछकर कहा-'अच्छा चलूंगा।'
'मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो कि चलोगे।'
देवदास ने अनुमान से पार्वती का पांव छूकर कहा-'यह बात मैं कभी नहीं भूलूंगा। अगर मेरे जाने से ही तुम्हारा दुख दूर हो, तो मैं अवश्य आऊंगा। मरने के पहले भी मुझे यह बात याद रहेगी।'
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