उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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पिता की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे छ: महीने बीत गये। देवदास घर में एकदम ऊब गये। सुख नहीं, शान्ति नहीं, उस पर एक ही तरह की जीवनचर्या से मन बिल्कुल विरक्त हो चला। तिस पर पार्वती की चिन्ता से चित्त और भी अव्यवस्थित हो रहा था; फिर आजकल तो उसके एक-एक काम, एक-एक हावभाव के चित्र हर समय आंखों के सामने नाचा करते थे। उस पर भाई-भौजाई के उदासीन व्यवहारों ने देवदास के सन्ताप को और भी दूना कर दिया था।
माता की अवस्था भी देवदास की ही तरह थी। स्वामी की मृत्यु के साथ-ही-साथ उनके सारे सुखों का लोप हो गया। पराधीन होकर इस मकान में रहना उनके लिए भी धीरे-धीरे असह्य होने लगा। आज कई दिनों से वे काशीवास का विचार कर रही हैं। केवल देवदास के अविवाहित होने के कारण वे अभी नहीं जा सकती हैं। जब-तब यही कहती हैं कि 'देवदास, अब तुम विवाह कर लो, मेरी साध पूरी हो जाय।' किन्तु यह कब सम्भव था! एक तो पिता की अभी वर्षी नहीं हुई, दूसरे अभी कोई इच्छानुकूल कन्या नहीं मिली। इसी से माता आजकल कभी-कभी दुखित हो जाया करती है कि यदि उस समय पार्वती का विवाह हो गया होता, तो अच्छा होता। एक दिन उन्होंने देवदास को बुलाकर कहा- 'अब मैं यहां नहीं रहना चाहती, कुछ दिनों के लिए काशी जाके रहने की इच्छा है।'
देवदास की भी यही इच्छा थी, कहा-'मेरी भी यही सम्मति है। छ: महीने के बाद लौट आना।'
'ऐसा ही करो। फिर लौट के आने पर उनकी किया-कर्म हो जाने के बाद तुम्हारा विवाह कर तुम्हें गृहस्थ बना देख, मैं फिर जाके काशीवास करूंगी।' देवदास सहमत होकर माता को कुछ दिनों के लिए काशी पहुंचाकर कलकत्ता चले गये।
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