उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
कलकत्ता आकर देवदास ने तीन-चार दिनों तक चुन्नीलाल को ढूंढा। वे नहीं मिले, उस मैस को छोड़कर किसी दूसरी जगह चले गये थे। एक दिन संध्या के समय देवदास को चन्द्रमुखी की बात याद आयी। एक बार देख आना अच्छा होगा। इतने दिनों तक कुछ भी स्मरण नहीं आया था। इससे कुछ लज्जा-सी मालूम हुई। एक किराये की गाड़ी करके चले। कुछ संध्या हो जाने पर चन्द्रमुखी के मकान के सामने गाड़ी आ खड़ी हुई। बहुत देर तक बुलाने-चिल्लाने के बाद भीतर से स्त्री के कंठ-स्वर में उत्तर मिला-'यहां नहीं है।'
सामने एक बिजली की रोशनी का खम्भा खड़ा था, देवदास ने उसके पास होकर कहा -'कह सकती हो, वह कहां गयी है?'
खिड़की खोलकर उसने कुछ क्षण देखने के बाद कहा-'क्या आप देवदास हैं?'
'हां।'
'खड़े रहिये - दरवाजा खोलती हूं।'
दरवाजा खोलकर उसने कहा-'आइये!' कंठ-स्वर कुछ परिचित-सा जान पड़ा, किन्तु फिर भी पहचान नहीं सके। थोड़ा अन्धकार भी हो चला था। सन्देह से कहा-'चन्द्रमुखी कहां रहती है, कुछ कह सकती हो?'
स्त्री ने मीठी हंसी हंसकर कहा-'हां, तुम ऊपर चलो।'
इस बार देवदास ने पहचान लिया-' हैं! तुम्ही हो ?'
'हां, मैं ही हूं। देवदास, मुझे एकदम भूल गये?'
ऊपर जाकर देवदास ने देखा, चन्द्रमुखी एक काले किनारे की मैली धोती पहने है, हाथ में केवल दो कड़ों को छोड़, शरीर पर कोई आभूषण नहीं है, सिर के केश इधर-उधर बिखरे हुए हैं, विस्मित होकर देवदास ने पूछा-'तुम्हीं?'
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