उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
अच्छी तरह से देखा, चन्द्रमुखी पहले की अपेक्षा बहुत दुबली हो गयी है। देवदास ने पूछा-'तुम क्या बीमार थीं?'
'कोई शारीरिक बीमारी नहीं थी, तुम अच्छी तरह से बैठो।'
देवदास ने चारपाई पर बैठकर देखा, घर में पहले की अपेक्षा आकाश-जमीन का अन्तर हो गया है। गृहस्वामिनी की भांति उसकी दुर्दशा की भी सीमा नहीं थी। एक भी सामान नहीं था। अलमारी, टेबिल, कुर्सी आदि सबके स्थान खाली पड़े हैं। केवल एक शैया पड़ी थी, चादर मैली थी। दीवाल पर से चित्र हटा दिये गये थे। लोहे की कांटियां अब भी गड़ी हुई थीं। दो-एक लाल फीते भी इधर-उधर लटके हुए थे। पहले की वह घड़ी भी बाकेट पर रखी हुई थी, किन्तु निःशब्द थी। आस-पास मकड़ों ने अपनी इच्छानुकूल जाला बुन रखा था। एक कोने में एक तेल का दीया धीमी-धीमी रोशनी फैला रहा था, उसी के सहारे से देवदास ने घर की इस नयी सजावट को देखा।
कुछ विस्मित और कुछ क्षुब्ध होकर कहा- 'दुर्दशा! तुमसे किसने कहा? मेरा तो भाग्य प्रसन्न हुआ है।'
देवदास समझ नहीं सके कहा-'तुम्हारे सब गहने क्या हुए?'
'बेच डाले।'
'माल-असबाब?'
'वह भी बेच डाला।'
'घर की तस्वीरें भी बेच डालीं?'
इस बार चन्द्रमुखी ने हंसकर सामने के एक मकान को दिखाकर कहा-'उस मकान के मालिक के हाथ बेच दी।'
देवदास ने कुछ देर तक उसके मुंह की ओर देखकर कहा-'चुन्नी बाबू कहां हैं?'
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