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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


'इतने दिन से क्यों नहीं गयी? अगर सचमुच ही तुम्हारा और कोई मतलब नहीं था तो फिर इतने दिन रहकर व्यर्थ कर्ज क्यों बढ़ाया?' चन्द्रमुखी सिर नीचा करके कुछ सोचने लगी। उसके जीवन-भर में बातचीत करने का यह पहला अवसर है।

देवदास ने पूछा-'चुप क्यों हो?'

चन्द्रमुखी ने शैया के एक ओर संकुचित भाव से बैठकर धीरे-धीरे कहा-'क्रोध मत करना; जाने के पहले सोचा था कि तुमसे भेंट कर लेना अच्छा होगा। आशा करती थी कि एक बार तुम आओगे। आज तुम आये हो, अब कल ही जाने का उद्योग करूंगी। पर कहा जाऊं, कुछ कह सकते हो?'

देवदास विस्मित होकर उठ बैठे; कहा-'सिर्फ मुझे देखने की आशा से रुकी थीं। लेकिन क्यों?'

'एक ख्याल। तुम मुझसे बहुत घृणा करते थे। इतनी घृणा किसी ने मुझसे कभी नहीं की, शायद इसीलिए। तुम्हें अब याद है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकती, पर मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि जिस दिन तुम पहले-पहल यहां पर आये थे, उसी दिन मेरी नजर तुम पर पड़ी। तुम धनी की सन्तान हो, यह मैं जानती थी; पर धन की आशा से मैं तुम्हारी ओर नहीं खिंची थी। तुम्हारे पहले कितने ही लोग यहां पर आये और गये, पर किसी में इतना तेज नहीं पाया। तुमने आने के साथ ही मुझे घायल किया; एक अयाचित, उपयुक्त, परन्तु अनुचित रूढ़ व्यवहार आरम्भ किया, घृणा से मुंह फेर लिया और अन्त में तमाशे की तरह कुछ देकर चले गये। ये सब बातें क्या तुम्हारे ध्यान में आती हैं?'

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