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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


देवदास चुप रहे, चन्द्रमुखी फिर कहने लगी-'उसी दिन से मेरी तुम्हारे ऊपर नजर पड़ी। मैं न तुमसे प्रेम करती और न घृणा करती थी, एक नयी चीज को देखकर जैसे मन में हमेशा ध्यान बना रहता है, तुमको भी देखकर उसी तरह किसी भांति नहीं भूल सकी। तुम्हारे आने पर बड़े भय और सतर्क के साथ रहती थी, पर न आने से कुछ अच्छा भी नहीं लगता था। फिर जाने कैसा मतिभ्रम्र हुआ कि इन दोनों आंखों को सब ही चीजें एक-सी दीखने लगीं। मैं पहले की अपेक्षा बिल्कुल बदल गयी, जो पहले थी वह अब नहीं रही। फिर तुमने शराब पीना शुरू किया; शराब से मुझे बड़ी घृणा है। किसी के मतवाला होने पर मुझे उस पर बड़ा क्रोध आता है। पर तुम्हारे मतवाला होने से क्रोध नहीं होता था, बल्कि बड़ा दुख होता था।'

यह कहकर चन्द्रमुखी ने देवदास के पांव पर हाथ रखकर डबडबायी हुई आंखों से कहा-'मैं बहुत अधम हूं, मेरे अपराधों पर ध्यान नहीं देना। तुम जितनी ही बातें कहते थे और घृणा करते थे, मैं उतनी ही तुम्हारे पास आना चाहती थी।'

अन्त में सो जाने पर-'रहने दो, ये बातें नहीं कहूंगी, नहीं तो क्रोध कर बैठोगे।'

देवदास ने कुछ नहीं कहा, नयी तरह की बातचीत से उसे कुछ वेदना पहुंचा रही थी। चन्द्रमुखी ने छिपा के आंख पोंछकर कहा-'एक दिन तुमने कहा कि हम लोग कितना सहन करती हैं, लांछना, अपमान, जघन्य अत्याचार, उपद्रव की बातें! उसी दिन से मुझे बड़ा अभियान हुआ-'मैंने सब बन्द कर दिया।'

देवदास ने बैठकर पूछा-'लेकिन यह जीवन कैसे कटेगा?'

चन्द्रमुखी ने कहा-'वह तो पहले ही कह चुकी।'

'और सोचो, यदि उसने तुम्हारा सब रुपया दाब रखा तो?'

चन्द्रमुखी इससे भयभीत नहीं हुई। शान्त-सहज भाव से कहा-'आश्चर्य नहीं, किन्तु इसे भी मैंने सोच रखा है कि विपत्ति पड़ने पर तुमसे कुछ भीख मांग लूंगी।'

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