उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने सोचकर कहा-'वह पीछे लेना। अभी और कहीं जाने का उद्योग करो।'
'कल ही करूंगी। कड़ा बेचकर एक बार मोदी से भेट करूंगी।'
देवदास ने पॉकेट से सौ-सौ रुपये के पांच नोट निकालकर तकिये के नीचे रखकर कहा-'कड़ा न बेचो, सिर्फ मोदी के साथ भेंट कर लेना। पर जाओगी कहां, किसी तीर्थ-स्थान में?'
'नहीं देवदास, तीर्थ और धर्म के ऊपर मेरी अधिक श्रद्धा नहीं है। कलकत्ता से अधिक दूर नहीं जाऊंगी। आस-ही-पास के किसी गांव में जाकर रहूंगी।'
'क्या किसी अच्छे घर में दासी का काम करोगी?'
चन्द्रमुखी की आंखों में फिर आंसू भर आये। पोंछकर कहा-'इच्छा नहीं होती। स्वाधीन-भाव से स्वच्छन्द होकर रहूंगी। क्यों दुख करने जाऊं? शारीरिक दुख कभी उठाया नहीं है, अब भी नहीं उठा सकूंगी। और अधिक खींचातानी करने से छिन्न-भिन्न हो जाऊंगी।'
देवदास ने विषण्ण मुख से कुछ हंसकर कहा-'पर शहर के पास रहने से प्रलोभन में पड़ सकती हो। मनुष्य के मन का विश्वास नहीं।'
इस बार चन्द्रमुखी का मुख खिल उठा। हंसकर कहा-'यह बात सच है, मनुष्य का विश्वास नहीं। पर मैं प्रलोभन में नहीं पड़ूंगी। स्त्रियों में लोभ अधिक है - यह मानती हूं, पर जिस चीज का लोभ रहता है जब उसे ही इच्छापूर्वक छोड़ दिया है, तो फिर मेरे लिए कोई भय नहीं है। एकाएक अगर किसी झोंक में आकर छोड़ती, तब सावधान होना आवश्यक था, लेकिन इतने समय में एक दिन भी तो पछतावा नहीं हुआ, मैं बड़े सुख से हूं।'
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