उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने सिर हिलाकर कहा-'स्त्रियों का मन बड़ा चंचल, बड़ा अविश्वासी होता है।'
इस बार चन्द्रमुखी कुछ खिसककर एकदम पास में आकर बैठी, हाथ पकड़कर कहा-'देवदास!'
देवदास उसके मुंह की ओर देखते रहे। इस बार वे नहीं कह सके कि मुझे मत छुओ। चन्द्रमुखी ने स्नेह से चक्षु विस्फारित कर कुछ कम्पित कंठ से उनके हाथों को अपनी गोद में खींचकर कहा-'आज अन्तिम दिन है, आज क्रोध मत करना। एक बात तुमसे पूछने की बड़ी लालसा है।'- यह कहकर कुछ देर देवदास के मुंह की ओर देखकर कहा-'पार्वती ने क्या तुम्हें बड़ी गहरी चोट पहुंचायी है?'
देवदास ने भ्रू-कुंचित कर कहा-'यह क्यों पूछती हो?'
चन्द्रमुखी विचलित नहीं हुई। शान्त और दृढ़ स्वर से कहा-'मुझे काम है। मैं सच कहती हूं, तुम्हें दुख पहुंचने से मुझे भी दुख होता है। इसे छोड़ शायद मैं बहुत-सी बातें जानती हूं। बीच-बीच में नशे के जोर में तुम्हारे मुंह से अनेक ऐसी बातें सुनी हैं। फिर भी मुझे विश्वास नहीं होता कि पार्वती ने तुम्हें ठगा है; वरन् मन में उठता है कि तुमने अपने-आपको ठगा है। देवदास, मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूं, इस संसार में बहुत-कुछ देखा सुना है। मेरे मन में क्या बात उठती है, जानते हो? मैं दृढ़ चित्त से कहती हूं कि इसमें तुम्हारी ही भूल है। मन में आता है, चंचल और अस्थिर-चित्त कहकर स्त्रियों की जितनी निन्दा की जाती है, वे उतनी निन्दा के योग्य नहीं हैं। निन्दा करने वाले भी तुम्हीं हो, प्रशंसा करने वाले भी तुम्हीं हो। तुम लोगों के मन में जो कुछ आता है, सहज ही कह देते हो। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकतीं। अपने मन की बात नहीं कर सकतीं। प्रकट करने पर भी जब लोग अच्छी तरह नहीं समझते; क्योंकि बहुत अस्पष्ट होता है। तुम लोगों के तर्क के सामने वह दब जाता है। फिर वही निन्दा के मुंह पर स्पष्ट और स्पष्टतर हो उठती है।'
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