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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


चन्द्रमुखी ने थोड़ा ठहरकर अपने कंठ-स्वर को और परिष्कृत करके कहा-'इस जीवन में प्रेम का व्यवसाय बहुत दिनों तक किया है, लेकिन प्रेम केवल एक बार किया है। उस प्रेम का मूल्य बहुत बड़ा है, उससे अनेक शिक्षाएं मिलती हैं। जानते हो, प्रेम एक वस्तु है और रूप का मोह दूसरी। इन दोनों में बड़ा गोलमाल है और पुरुष ही अधिक गोलमाल करते हैं। रूप का मोह तुम लोगों की अपेक्षा हम लोगों में बहुत कम है, इसी से हम लोग तुम लोगों की तरह एकबारगी उन्मत्त नहीं हो उठतीं। तुम लोग जब आकर अपना प्रेम दिखलाते हो, अनेकों प्रकार के भाव प्रकट करते हो, तब हम लोग चुप हो रहती हैं। कितनी ही बार तुम लोगों के मन को क्लेश देने में लज्जा मालूम होती है, दुख और संकोच होता है। मुंह देखने से अगर घृणा भी होती है, तब भी अक्सर लज्जा से यह नहीं कह सकती कि मैं तुमको प्यार नहीं करती। फिर एक बाह्य प्रणय का अभिनय आरम्भ होता है; किसी दिन जब उसका अन्त हो जाता है तो पुरुष अस्थिर होकर कहते हैं कि कितनी विश्वासघातिनी है। तब सब लोग उसी बात को सनते हैं और उसी पर विश्वास करने लग जाते हैं। हम लोग तब भी चुप रहती हैं। मन में कितना ही क्लेश होता है, किन्तु उसे कौन देखने जाता है?' देवदास ने कुछ नहीं कहा। वह भी बहुत देर तक निःशब्द मुंह की ओर देखती रही फिर कहा-'यदि कुछ होता है तो शायद थोड़ी-बहुत ममता उत्पन्न होती है, स्त्रियां मन में सोचती हैं कि यही प्रेम है। शान्त-धीर भाव से गृहस्थी के काम-काज करती हैं। दुख के समय प्राणपण से सहायता करती हैं। जब तुम लोग खूब प्रशंसा करते हो, सब लोगों के मुख से कितनी ही बार धन्य-धन्य निकलता है, लेकिन उस समय तक उसका प्रेम का वर्ण-परिचय भी आरम्भ होता है। इसके बाद अगर किसी अशुभ मुहूर्त में अपने हृदय की असह्य वेदना के कारण छटपटाती हुई द्वार के बाहर आकर खड़ी होती हैं तो तुम लोग चिल्लाकर कह उठते हो-'कलंकिनी!

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