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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690

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कालजयी प्रेम कथा


'छि:! छि:!' अकस्मात देवदास चन्द्रमुखी के मुंह को हाथ से दबाकर कह उठे-'चन्द्रमुखी, यह क्या?'

चन्द्रमुखी ने धीरे-धीरे हाथ हटाकर कहा-'डरो नहीं देवदास, मैं तुम्हारी पार्वती की बात नहीं कहती हूं।' यह कहकर वह चुप हो रही।

देवदास ने कुछ क्षण चुप रहकर अन्यमनस्क होकर कहा-'किन्तु कर्त्तव्य है, धर्म-अधर्म तो है?'

चन्द्रमुखी ने कहा-'हां, वह तो है, और इसीलिए देवदास से वह सच्चा प्रेम करती और उसे सहन भी करती है; आन्तरिक प्रेम से जो सुख और तृप्ति मिलती है, उसे और बढ़ाने के लिए वह घर में अशान्ति नहीं लाना चाहती। पर देवदास, मैं सच कहती हूं, पार्वती ने तुम्हें कुछ भी नहीं ठगा है, तुम्हीं ने अपने-आपको ठगा है। आज इस बात को समझने की शक्ति तुममें नहीं है, यह बात मैं जानती हूं। अगर कभी समय आयेगा तो तुम देखोगे कि मैं सच कहती थी।' देवदास की दोनों आंखों में जल भर आया। वे दुखी होकर सोचने लगे कि क्या चन्द्रमुखी की बातें सच हैं? आंखों के आंसुओं को चन्द्रमुखी ने देखा, किन्तु पोंछने की चेष्टा नहीं की। मन-ही-मन कहने लगी-तुम्हें मैंने अनेकों रूप में देखा है। इससे तुम्हारे मन की गति को मैं भली-भांति जानती हूं। साधारण पुरुषों की भांति तुम मांगकर प्रेम प्रकाशित नहीं कर सकते। तब रूप की बात - रूप को कौन नहीं चाहता? किन्तु इसीलिए तुम अपने इतने तेज का, रूप के पांव में आत्म-विसर्जन कर दोगे, यह बात विश्वास में नहीं आती। पार्वती है तो बड़ी रूपवती, लेकिन फिर भी यही विश्वास होता है कि पहले उसी ने प्रेम का द्वार खोला, पहले उसी ने प्रेमालाप प्रारम्भ किया। मन-ही-मन कहते-कहते सहसा उसके मुख से अस्फुट स्वर से बाहर निकल पड़ा-'अपने को देखकर यह समझती हूं कि वह तुमको कितना प्यार करती होगी।'

देवदास ने चटपट बैठकर कहा-'क्या कहती हो?'

चन्द्रमुखी ने कहा-'कुछ नहीं। कहती थी कि वह तुम्हारा रूप देखकर नहीं भूल सकती। तुम्हारे रूप है, लेकिन उसमें भूल नहीं होती। इस तीव्र-रूक्ष रूप पर सबकी दृष्टि नहीं पड़ती। किन्तु जिसकी पड़ती है, उसकी दृष्टि फिर नहीं हट सकती।'

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