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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अर्दली बोला, “आपके जाने की बात तो परसों के लिए थी न?”

“नहीं परसों नहीं कल - एक बत्ती दे जा,” समाज में महिलाओं की स्वाधीनता का यह नया रूप देखकर उसका मन उद्विग्न हो उठा था।

दूसरे दिन ठीक समय पर वह मिक्थिला के लिए चल पड़ा। लेकिन वहां पहुंचने पर मन नहीं लगा। देशी और विलायती पलटनों की छावनी है। अनेक बंगाली सपरिवार रहते हैं। अच्छा शहर है। नए लोगों के लिए घूमकर देखने की बहुत-सी चीजें हैं। लेकिन यह सब उसे अच्छा नहीं लगा। मन रंगून पहुंचने के लिए छटपटाने लगा। मामो में रहते हुए रिडायरेक्ट किया हुआ मां का एक पत्र उसे मिला था। उसके बाद रामदास के दो पत्र आए थे। उसने लिखा था कि जब तक तुम लौट नहीं आते, डेरा बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं जाकर देख आया है। तिवारी अच्छी तरह रह रहे हैं।

स्टेशन पर एक लड़के को रेल के कर्मचारियों ने ट्रेन से उतार दिया था। उसके बदन पर मैले, फटे-पुराने हैट-कोट थे। साथ में एक टूटा ट्रंक था। टिकट खरीदने के पैसे से उसने शराब पी ली थी। उसका बस इतना ही अपराध था। लड़के को पुलिस ले जा रही है। यह देखकर अपूर्व ने उसका किराया चुका दिया तथा और चार-पांच रुपए उसे देकर वहां से हटा रहा था कि सहसा उसने हाथ जोड़कर कहा, “महाराज, मेरा यह ट्रंक लेते जाइए। इसे बेचकर जो दाम मिले उसमें से अपना रुपया काट लीजिएगा और बाकी रुपया मुझे लौटा दीजिएगा।” उसके कंठ स्वर से यह स्पष्ट हो गया कि उसने यह बात पूरे होश-हवास में कही है।

अपूर्व ने पूछा, “कहां लौटाऊं?”

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