उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
लड़के ने कहा, “अपना पता दे दीजिए। मैं आपको चिट्ठी लिख दूंगा।”
अपूर्व बोला, “अपना ट्रंक अपने पास रहने दो। मैं इसे नहीं बेच सकूंगा। मेरा नाम अपूर्व हालदार है। रंगून की वोथा कम्पनी में नौकर हूं। कभी भेज सको तो रुपया भेज देना।”
उसने कहा, “अच्छा नमस्कार। मैं अवश्य भेज दूंगा। यह दया मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा,” यह कहकर एक बार फिर नमस्कार करके ट्रंक बगल में दबाकर वह चला गया।
इस बार अपूर्व ने ध्यान से उसके चेहरे को देखा। आयु अधिक नहीं है लेकिन कितनी है ठीक-ठीक बताना कठिन है। सम्भव है, नशे के कारण दस वर्ष का अंतर पड़ गया हो। शरीर का रंग गोरा है। लेकिन धूप में जलकर तांबे के रंग जैसा हो गया है। सिर के रूखे-सूखे बाल माथे के नीचे तक झूल रहे हैं। आंखों की दृष्टि उछलती-सी है। नाक खंजर की तरह सीधी है। शरीर दुबला है। हाथ की अंगुलियां लम्बी और पतली हैं तथा समूचे बदन पर उपवास और अत्याचार के चिन्ह अंकित हैं।
टिकट खरीदकर अपूर्व ट्रेन में जा बैठा और दूसरे दिन ग्यारह बजे रंगून पहुंच गया। जब तांगा डेरे पर पहुंचा तो देखा, तिवारी को जैसे कोई उत्कंठा ही नहीं। बरामदे का दरवाजा तक नहीं खुला। गाड़ी की आवाज सुनकर भी नीचे नहीं आया।
उसने दरवाजे पर पहुंचकर पुकारा-”तिवारी-! ऐ तिवारी!”
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