उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
थोड़ी देर बाद धीरे से, बड़ी सतर्कता से दरवाजा खुला। क्रोध से पागल अपूर्व कमरे में घूसते ही अवाक और हतबुद्धि हो गया। सामने भारती खड़ी थी। यह कैसी मूर्ति है उसकी? पैर में जूते नहीं हैं, काले रंग की साड़ी पहने है, बाल सूखे-सूखे बिखरे हैं। शांत चेहरे पर विषाद की आभा है। उस पर कभी क्रोध भी कर सकेगा, यह विचार अपूर्व मन में ला ही नहीं सका। भारती बोली, “आ गए? अब तिवारी बच जाएगा।”
अपूर्व ने कहा, “उसे क्या हुआ?”
भारती ने कहा, “इधर बहुत से लोगों को चेचक की बीमारी हुई है। उसे भी हो गई। आप ऊपर चलिए, स्नान करके थोड़ी देर आराम करने के बाद नीचे आइएगा। तिवारी अभी सो रहा है, जागने पर बता दूंगी।”
अपूर्व आश्चर्य से बोला, “ऊपर के कमरे में?”
भारती बोली, “हां, अभी कमरा हमारे अधिकार में है। मैं चली गई। खूब साफ है। आपको कोई कष्ट नहीं होगा। चलिए।”
कमरे में फर्श पर संवारकर अपने हाथों से बिस्तर बिछाकर बोली, “अब आप स्नान कर लीजिए।”
अपूर्व ने कहा, “पहले सारी बातें मुझे बताइए।”
भारती बोली, “स्नान करके संध्या-पूजा कर लें, तब।”
अपूर्व ने जिद नहीं की। कुछ देर बाद जब वह स्नान आदि समाप्त करके आया तो भारती ने हंसकर कहा, “अपना यह गिलास लीजिए। खिड़की पर कागज में लिपटी चीनी रखी है। उसे लेकर मेरे साथ नल के पास आइए। किस तरह शर्बत बनाया जाता है, मैं सिखा देती हूं।”
अधिक कहने की आवश्यकता नहीं थी। प्यास से छाती फटी जा रही थी। शर्बत बनाकर उसने पी लिया।
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