उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“अगर जागते रहने पर भी चली जाऊं तो आप क्या कर लेंगे?”
अपूर्व चुप रह गया।
भारती बोली, 'हमारे म्लेच्छ समाज में क्या नेकनामी और बदनामी से बचकर नहीं चलना पड़ता?”
अपूर्व की बुद्धि ठिकाने नहीं थी। प्रत्युत्तर में उसने एक विचित्र प्रश्न कर डाला। बोला, “मेरी मां यहां नहीं है। मेरे बीमार पड़ जाने पर आप क्या करेंगी? तब तो आपको ही रहना होगा।”
“मुझे रहना होगा? आपके मित्र तलवलकर बाबू को खबर देने से काम नहीं चलेगा?”
अपूर्व गर्दन हिलाकर बोला, “नहीं। यह नहीं हो सकता। या तो मां या फिर आप। आप दोनों में से एक को न देख पाने पर मैं नहीं बचूंगा। कल अगर मुझे चेचक निकल जाए तो आप यह बात भूल मत जाना।”
उसके अनुरोध के अंतिम शब्द किस तरह सुनाई दिए कि भारती जैसे स्वयं को ही भूल गई। बिछौने के एक छोर पर बैठकर अपूर्व के शरीर पर एक हाथ रखकर रुंधे गले से बोली, “नहीं....नहीं भूलूंगी....कभी नहीं भूलूंगी...इस बात को क्या कभी भूल सकती हूं।” लेकिन इन शब्दों के मुंह से निकलते ही अपनी भूल समझकर एकदम उठ खड़ी हुई। जोर लगाकर जरा हंसकर बोली, “लेकिन अच्छा हो जाने पर भी तो कम विपत्ति नहीं आएगी अपूर्व बाबू! धूमधाम से प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। अच्छा अब सो जाइए। मुझे बहुत काम करने हैं।”
“कौन से काम? -खाना खाना है?”
भारती बोली, “खाना तो दूर, अभी तक स्नान भी नहीं किया।”
“लेकिन सांझ के समय स्नान करने से बीमार न पड़ जाओगी?”
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