उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
286 पाठक हैं |
हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
भारती बोली, “असम्भव नहीं है। लेकिन स्नानघर में आपने जो गंदगी फैला दी है, उसे साफ करने पर स्नान किए बिना क्या रहा जा सकता है?”
अपूर्व लज्जित होकर बोला, “वह सब मैं साफ कर दूंगा। आप मत कीजिए,” कहकर वह उठने लगा।
भारती रूठकर बोली, “अब बहादुरी दिखाने की जरूरत नहीं है। थोड़ा सोने की कोशिश करो। लेकिन ऐसे कोमल आदमी को मां ने विदेश कैसे भेज दिया, यही सोच रही हूं। उठिए मत, वह नहीं हैं।” बनावटी क्रोध और शासन के स्वर में आज्ञा देकर वह चली गई।
निर्जीव की तरह अपूर्व कब सो गया, वह जान भी न सका।
उसकी नींद टूटी, भारती के पहुंचने पर। आंखें मलकर उठने पर देखा, रात के बारह बज गए हैं। भारती सामने खड़ी है। अपूर्व की पहली नजर पड़ी उसके बालों की लम्बाई पर। सुगंधित साबुन की गंध से कमरे की हवा हठात् पुलकित हो उठी थी। काली पाड़ की साड़ी पहने है। बदन पर अंगिया न होने के कारण वहां का अधिकतर भाग दिखाई दे रहा है। भारती की यह मानो कोई नूतन मूर्ति है जिसे अपूर्व ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। मुंह से एकाएक निकला, “इतने भीगे बाल, सूखेंगे कैसे?”
“कैसे सूखेंगे, आप इनकी चिंता मत कीजिए। मेरे साथ आइए।”
“तिवारी कैसा है?”
“ठीक है। कम-से-कम आज की रात तो आपको सोचना न पड़ेगा!”
|