उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
286 पाठक हैं |
हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
उसके साथ-साथ दूसरे कमरे में आकर देखा-एक छोटी-सी टोकरी में कुछ फल-फूल, एक थाली, एक गिलास रखा है। भारती ने दिखाकर कहा, “इससे अधिक और कुछ नहीं किया जा सकता था। पानी से सब धो डालिए। थाली-गिलास सब। गिलास में जल लेकर उस कमरे में जाइए। मैंने आसन लगा दिया है।”
अपूर्व ने पूछा, “आप यह सब कब ले आईं?”
भारती बोली, “आप सो रहे थे। पास ही फलों की एक दुकान है। दूर नहीं जाना पड़ा। टोकरी तो आप लोगों की ही है।” फिर जाते-जाते सावधन करती गई, “चाकू धोते समय कहीं हाथ मत काट लेना।”
कुछ देर बाद अपूर्व आसन पर बैठा फल काट रहा था और पास ही बैठी भारती हंस रही थी। अपूर्व ने कहा, “आप हंसिए, कोई हर्ज नहीं, लेकिन आपने मेरे भोजन के लिए जो व्यवस्था की है उसके लिए सहस्रों धन्यवाद! मां के अतिरिक्त और कोई ऐसा नहीं करता।”
उसकी बात को अनसुनी करके भारती ने कहा, “हंसती हूं क्या अपनी इच्छा से? अपूर्व बाबू! तिवारी के स्वस्थ हो जाने पर मैं अवश्य ही मां को चिट्ठी लिखूंगी कि या तो वह आ जाएं या फिर अपने लड़के को वापस बुला लें। ऐसे मनुष्य को बाहर नहीं छोड़ना चाहिए।”
अपूर्व बोला, “मां अपने लड़के को अच्छी तरह जानती है। लेकिन देखिए, अगर यहां मेरे बजाय मेरे भाइयों में से कोई होता तो आपकी इतनी बातें न चलतीं। वह लोग आपसे ही सारे काम करा लेते।”
भारती समझी नहीं।
अपूर्व बोला, “भाई लोग सब कुछ खाते-पीते हैं। मुर्गी और डिनर बिना उनका पेट नहीं भरता।”
भारती आश्चर्य से बोली, “यह क्या कह रहे हैं आप?”
|