उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व बोला, “सच कह रहा हूं। पिताजी भी तो आधे ईसाई थे। मां को उस हालत में क्या कम कष्ट भोगने पड़े थे।”
भारती उत्सुक होकर बोली, “क्या यह सच है? लगता है, मां जी भयानक हिंदू हैं।”
अपूर्व बोला, “भयानक क्यों? हिंदू घर की लड़की को जैसा होना चाहिए वैसी ही हैं।” मां की बात कहते-कहते उसका स्वर करुण और स्निग्ध हो उठा। बोला, “घर में दो बहुएं हैं, फिर भी मां को अपनी रसोई आप ही बनानी पड़ती है। लेकिन मां का स्वभाव ही ऐसा है। कभी किसी पर दबाव नहीं डालतीं। किसी से कोई शिकायत नहीं करतीं। कहती हैं - मैं भी तो अपने आचार-विचार त्याग कर अपने पति के मत को स्वीकार नहीं कर सकी। अगर यह लोग मेरे मत से सहमत न हो सकें तो शिकायत करना ठीक नहीं? मेरी बुद्धि और मेरे संस्कार मानकर बहुओं को चलना पड़ेगा, इसका कोई अर्थ भी है?”
भारती ने भक्ति और श्रद्धा से अवनत होकर कहा?, “मां पुराने जमाने की महिला हैं। लेकिन उनमें धीरज बहुत है।”
अपूर्व ने उत्साहित होकर कहा, “धीरज? मां के धीरज की क्या कोई सीमा है? आपने उनको देखा नहीं है। देखने पर एकदम ही आश्चर्यचकित रह जाएंगी।”
भारती प्रसन्न मौन मुख से टकटकी लगाए ताकती रही। अपूर्व बोला, “यह मान लेना पड़ेगा कि समूचे जीवन में मेरी मां दु:ख ही भोगती रहीं। उनका सम्पूर्ण जीवन पति-पुत्रों के म्लेच्छाचार सहते ही बीता है। उनका एकमात्र भरोसा मैं हूं। बीमारी की हालत में केवल मेरे ही हाथ का पकाया भोजन मुंह में डालती हैं।”
भारती ने कहा, “तब तो उनको कष्ट हो सकता है।”
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