उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व ने कहा, “शायद हो भी रहा हो। इसलिए तो उन्होंने मुझे पहले छोड़ना नहीं चाहा पर मैं हमेशा तो घर में बैठा नहीं रह सकता। उन्हें एकमात्र आशा है कि मेरी पत्नी रसोई बनाकर उन्हें खिलाया करेगी।”
भारती हंसकर बोली, “उनकी इस आशा को आप पूरा करके क्यों नहीं आए?”
अपूर्व बोला, “लड़की पसंद करके जब मां ने सब ठीक-ठाक कर लिया, तभी मुझे झटपट यहां चला आना पड़ा। मैं कह आया हूं कि मां जब चिट्ठी लिखेगी तो आकर आज्ञा का पालन करूंगा।”
भारती बोली, “यही ठीक है।”
अपूर्व बोला, “मैं चाहता हूं कि वह मां को कभी दु:ख न दे। मुझे क्या जरूरत है गान-वाद्य जानने वाली कॉलेज में पढ़ी हुई विदुषी लड़की की।”
भारती बोली, “हां जरूरत ही क्या है?”
अपूर्व स्वयं भी किसी दिन इसका विरोधी था। भाभी का पक्ष लेकर झगड़ा करके क्रुद्ध होकर मां से कहा था, “किसी ब्राह्मण-पंडित के घर से जैसे बने एक लड़की पकड़ लाकर झमेला खत्म कर दो-' इस बात को आज बिल्कुल ही भूल गया। बोला, “आप जो बात समझती हैं मेरे भाई और भाभियां उस बात को समझना नहीं चाहतीं। अपना धर्म मानकर चलना चाहिए। पूरा घर आदमियों से भरा होने पर भी मेरी मां अकेली है। इससे बढ़कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है उनका? इसीलिए मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि मेरे किसी आचरण से मां को दु:ख न हो।”
कहते-कहते उसका गला भारी हो गया और आंखों में आंसू छलछला उठे।
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